आपन्न: संसृतिं घोरां यन्नाम विवशो गृणन् ।
तत: सद्यो विमुच्येत यद्बिभेति स्वयं भयम् ॥ १४ ॥
शब्दार्थ
आपन्न:—फँसे हुए; संसृतिम्—जन्म-मृत्यु के चक्कर में; घोराम्—अत्यन्त उलझे; यत्—जो; नाम—परम नाम; विवश:— अनजाने में; गृणन्—उच्चारण करते हुए; तत:—उससे; सद्य:—तुरन्त; विमुच्येत—मुक्त हो जाता है; यत्—जो; बिभेति—डरता है; स्वयम्—स्वयं; भयम्—साक्षात् भय ।.
अनुवाद
जन्म तथा मृत्यु के जाल में उलझे हुए जीव, यदि अनजाने में भी कृष्ण के पवित्र नाम का उच्चारण करते हैं, तो तुरन्त मुक्त हो जाते हैं, क्योंकि साक्षात् भय भी इससे (नाम से) भयभीत रहता है।
तात्पर्य
वासुदेव अथवा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण सभी के परम नियन्ता हैं। इस सृष्टि में कोई ऐसा नहीं है जो सर्वशक्तिमान के क्रोध से भयभीत न हो। रावण, हिरण्यकशिपु, कंस जैसे विकट असुर तथा ऐसे ही अन्य शक्तिशाली जीव भगवान् द्वारा मार डाले गये। पराक्रमी वासुदेव ने अपनी सारी निजी शक्तियाँ अपने नाम को प्रदान कर रखी हैं। प्रत्येक वस्तु उनसे सम्बन्धित है और प्रत्येक वस्तु की अपनी पहचान उनमें ही निहित है। यहाँ पर यह कहा गया है कि कृष्ण के नाम से साक्षात् भय तक भयभीत रहता है। यह इस बात का सूचक है कि कृष्ण का नाम भगवान् कृष्ण से अभिन्न है। अत: कृष्ण का नाम स्वयं कृष्ण के ही समान शक्तिमान है। उनमें तनिक भी अन्तर नहीं है। अत: बड़े से बड़े संकट की स्थिति में भी भगवान् श्रीकृष्ण के पवित्र नाम का लाभ उठाया जा सकता है। कृष्ण के दिव्य नाम को, चाहे अनजाने में या बाध्य होकर, उच्चरित करने पर जन्म तथा मृत्यु की झंझट से उबरा जा सकता है।
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