को वा भगवतस्तस्य पुण्यश्लोकेड्यकर्मण: ।
शुद्धिकामो न शृणुयाद्यश: कलिमलापहम् ॥ १६ ॥
शब्दार्थ
क:—कौन; वा—बल्कि; भगवत:—भगवान् का; तस्य—उनका; पुण्य—पुण्यात्मा; श्लोक-ईड्य—स्तुतियों द्वारा पूजनीय; कर्मण:—कर्म; शुद्धि-काम:—समस्त पापों से उद्धार की इच्छा करने वाला; न—नहीं; शृणुयात्—सुनता है; यश:—यश; कलि—कलह के युग का; मल-अपहम्—शुद्धि करने वाला ।.
अनुवाद
इस कलहप्रधान युग के पापों से उद्धार पाने का इच्छुक ऐसा कौन है, जो भगवान् के पुण्य यशों को सुनना नहीं चाहेगा?
तात्पर्य
कलियुग अपने कलह प्रधान लक्षणों के कारण अत्यन्त निकृष्ट युग है। यह पापाचारों से इस प्रकार परिपूरित है कि थोड़ी सी नासमझी से बड़ी भारी लड़ाई हो जाती है। जो भगवद्भक्ति में लगे हैं, जिन्हें आत्म-श्लाघा की कोई इच्छा नहीं है और जो कर्मों के फल तथा शुष्क दार्शनिक ज्ञान से मुक्त हैं, वे ही इस जटिल युग के बन्धन से छूट सकते हैं। जनता के नेता शान्ति तथा मैत्री से रहने के लिए उत्सुक तो हैं, किन्तु उन्हें भगवान् की महिमा के श्रवण की सरल विधि के बारे में कोई जानकारी नहीं है। इसके विपरीत, ऐसे नेता भगवत्महिमा के प्रचार के विरोधी हैं। दूसरे शब्दों में, मूर्ख नेता भगवान् के अस्तित्व को ही नकारना चाहते हैं। धर्मनिरपेक्ष राज्य के नाम पर ऐसे नेता प्रति वर्ष नई-नई योजनाएँ बनाते हैं। किन्तु भगवान् की प्रकृति की दुर्लंघ्य जटिलताओं के कारण, उन्नति की ये सारी योजनाएँ निरन्तर विफल होती रहती हैं। उनके पास यह देख पाने की दृष्टि ही नहीं है कि शान्ति तथा मैत्री के उनके सारे प्रयास विफल हो रहे हैं। लेकिन यहाँ पर इस अवरोध को पार करने के लिए संकेत मिलता है। यदि हम वास्तविक शान्ति चाहते हैं, तो हमें भगवान् कृष्ण को समझने का मार्ग खोल देना चाहिए और उनके महिमामय कार्यों के लिए उनका यशोगान करना चाहिए जैसा कि श्रीमद्भागवत के पृष्ठों में अंकित है।
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