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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 1: मुनियों की जिज्ञासा  »  श्लोक 18
 
 
श्लोक  1.1.18 
अथाख्याहिहरेर्धीमन्नवतारकथा: शुभा: ।
लीला विदधत: स्वैरमीश्वरस्यात्ममायया ॥ १८ ॥
 
शब्दार्थ
अथ—अत:; आख्याहि—वर्णन करें; हरे:—भगवान् के; धीमन्—हे बुद्धिमान; अवतार—अवतार; कथा:—कथाएँ; शुभा:—शुभ, कल्याणप्रद; लीला—साहसिक कार्य; विदधत:—सम्पन्न; स्वैरम्—लीलाएँ; ईश्वरस्य—परम नियन्ता की; आत्म—निजी, अपनी; मायया—शक्तियों से ।.
 
अनुवाद
 
 हे बुद्धिमान सूतजी, कृपा करके हमसे भगवान् के विविध अवतारों की दिव्य लीलाओं का वर्णन करें। परम नियन्ता भगवान् के ऐसे कल्याणप्रद साहसिक कार्य तथा उनकी लीलाएँ उनकी अन्तरंगा शक्तियों द्वारा सम्पन्न होते हैं।
 
तात्पर्य
 भौतिक जगतों की उत्पत्ति, पालन तथा संहार के लिए पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् स्वयं हजारों रूपों में अवतरित होते हैं और इन विविध दिव्य रूपों में वे जो-जो साहसिक कार्य करते हैं, वे सभी कल्याणप्रद होते हैं। जो लोग ऐसे कार्यों के समय उपस्थित रहते हैं तथा जो ऐसे कार्यों की दिव्य गाथाओं को सुनते हैं, वे दोनों लाभान्वित होते हैं।
 
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