धर्म में चार मूल विषय सम्मिलित हैं—पुण्य कर्म, आर्थिक विकास, इन्द्रियतुष्टि तथा भवबन्धन से मोक्ष। अधार्मिक जीवन बर्बर अवस्था है। वस्तुत: मानव जीवन का समारम्भ धर्म के सूत्रपात से होता है। आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन—ये पशु जीवन के चार नियम (लक्षण) हैं। ये चारों पशुओं तथा मनुष्यों में समान रूप से लागू होते हैं। किन्तु मनुष्यों में एक अतिरिक्त कार्य धर्म होता है। धर्म के बिना मनुष्य-जीवन पशु जीवन से ज्यादा अच्छा नहीं है। अत: प्रत्येक मानव समाज में धर्म का कोई न कोई रूप पाया जाता है, जिसका उद्देश्य आत्म- साक्षात्कार है और जो ईश्वर के साथ मनुष्य के शाश्वत सम्बन्ध को बताने वाला है। मानव सभ्यता की निम्नतर अवस्थाओं में भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व दिखाने के लिए सदैव होड़ लगी रहती है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि इन्द्रियों को तुष्ट करने के लिए निरन्तर स्पर्धा चलती रहती है। ऐसी प्रवृत्ति के वशीभूत होकर मनुष्य धर्म की ओर मुड़ता है। इस तरह वह कुछ भौतिक लाभ प्राप्त करने के लिए पुण्य कर्म या धार्मिक कार्य करता है। किन्तु यदि ऐसे भौतिक लाभ अन्य साधनों से प्राप्त हो जाते हैं, तो तथाकथित धर्म उपेक्षित हो जाता है। आधुनिक सभ्यता का यही हाल है। मनुष्य आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न होता जा रहा है अत: वर्तमान समय में वह धर्म में अधिक रुचि नहीं लेता। गिरजाघर, मसजिदें या मन्दिर एक तरह से अब निर्जन हैं। लोगों की रुचि अपने पूर्वजों द्वारा बनाए गये धार्मिक स्थलों में न होकर फैक्टरियों, दुकानों तथा सिनेमाघरों की ओर अधिक है। इससे यह सिद्ध होता है कि धर्म का आचरण किसी न किसी आर्थिक लाभ के लिए ही किया जाता है। आर्थिक लाभ की आवश्यकता इन्द्रियतृप्ति के लिए पड़ती है। प्राय: इन्द्रियतृप्ति की खोज से ऊब कर मनुष्य मोक्ष की ओर मुड़ता है और परमेश्वर से तदाकार होने का प्रयत्न करता है। फलस्वरूप, ये सारी दशाएँ केवल इन्द्रियतृप्ति के विभिन्न प्रकार बन जाती हैं।
वेदों में उपर्युक्त चारों कर्मों की संस्तुति नियामक के रूप में की गई है, जिससे इन्द्रियतृप्ति के लिए अनावश्यक स्पर्धा उत्पन्न न हो। किन्तु श्रीमद्भागवत इन्द्रियतृप्ति सम्बन्धी इन सब कर्मों से परे है। यह नितान्त दिव्य साहित्य है, जो उन्हीं शुद्ध भगवद्भक्तों द्वारा समझा जा सकता है, जो स्पर्धात्मक इन्द्रियतृप्ति से परे रहते हैं। इस भौतिक जगत में पशु तथा पशु, मनुष्य तथा मनुष्य, समाज तथा समाज और राष्ट्र तथा राष्ट्र के मध्य तीक्ष्ण स्पर्धा चल रही है। लेकिन भगवान् के भक्त ऐसी स्पर्धा से बहुत ऊपर रहते हैं। वे भौतिकतावादी व्यक्ति से स्पर्धा नहीं करते, क्योंकि वे भगवद्धाम वापस जाने के मार्ग पर होते हैं, जहाँ जीवन शाश्वत तथा आनन्दमय होता है। ऐसे अध्यात्मवादी द्वेषरहित और शुद्ध हृदय वाले होते हैं। भौतिक जगत में प्रत्येक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से ईर्ष्या करता है, अतएव स्पर्धा चलती रहती है। लेकिन भगवान् के दिव्य भक्त न केवल भौतिक ईर्ष्या-द्वेष से रहित होते हैं, अपितु सबका कल्याण चाहते हैं और वे ईश्वर को केन्द्र मानकर एक स्पर्धारहित समाज स्थापित करने का प्रयास करते रहते हैं। स्पर्धारहित समाज की वर्तमान समाजवादी विचारधारा कृत्रिम है, क्योंकि उसमें तानाशाह के पद के लिए स्पर्धा चलती है। वेदों की दृष्टि से या सामान्य जन के क्रियाकलापों की दृष्टि से, इन्द्रियतृप्ति ही भौतिक जीवन का मूलाधार है। वेदों में तीन मार्ग बताये गये हैं। पहला है श्रेष्ठतर लोकों की प्राप्ति के उद्देश्य से सकाम कर्म करना। दूसरा है देवलोक जाने के लिए विभिन्न देवताओं की पूजा करना और तीसरा है परम सत्य तथा उनके निर्विकार पक्ष का साक्षात्कार करके उससे तदाकार होना।
किन्तु परम सत्य का निराकार पक्ष ही सर्वोत्कृष्ट नहीं है। इससे भी बढक़र परमात्मा-स्वरूप है और इसके भी ऊपर है परम सत्य या भगवान् का साकार रूप। श्रीमद्भागवत परम सत्य के साकार स्वरूप के विषय में जानकारी प्रदान करता है। यह समस्त निर्विशेषवादी साहित्य तथा वेदों के ज्ञानकाण्ड विभाग से श्रेष्ठ है। यह कर्मकाण्ड विभाग तथा उपासना काण्ड विभाग से भी उच्चतर है, क्योंकि यह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा का निर्देश करता है। कर्म-काण्ड में और अधिक इन्द्रियतृप्ति के लिए स्वर्ग जाने की स्पर्धा चलती है। इसी प्रकार ज्ञान-काण्ड तथा उपासना-काण्ड में भी स्पर्धा चलती है। श्रीमद्भागवत इन सबों से श्रेष्ठ है, क्योंकि इसका लक्ष्य परम सत्य है, जो इन समस्त विभागों का मूल है। श्रीमद्भागवत से मूल तत्त्व तथा श्रेणियाँ दोनों जाने जा सकते हैं। यह मूल तत्त्व परम सत्य परमेश्वर हैं और अन्य सारे उद्भासन शक्ति के सापेक्ष रूप हैं।
मूल तत्त्व से अलग कुछ नहीं है, किन्तु साथ ही, सारी शक्तियाँ मूल तत्त्व से पृथक् हैं। यह विचारधारा विरोधमूलक नहीं है। श्रीमद्भागवत वेदान्त सूत्र के इस एक-तथा-अनेक युगपत् दर्शन (भेदाभेदवाद) को स्पष्ट रूप से घोषित करता है, जो जन्माद्यस्य सूत्र से प्रारम्भ होता है।
यह ज्ञान कि भगवान् की शक्ति भगवान के साथ एक तथा उनसे भिन्न भी है, उन मनोधर्मियों पर करारी चपत है, जो इस शक्ति को परमेश्वर के रूप में स्थापित करना चाहते हैं। जब यह ज्ञान वास्तविक रूप से समझ में आ जाता है, तो अद्वैतवाद तथा द्वैतवाद की धारणा अपूर्ण लगने लगती है। इस दिव्य चेतना का विकास, जो एक ही समय में एक तथा भिन्न की विचारधारा पर दीक्षित हो जाने से तीनों प्रकार के कष्टों से तुरन्त ही मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। ये तीन प्रकार के कष्ट हैं—(१) मन तथा शरीर से उत्पन्न दुख, (२) अन्य जीवों द्वारा पहुँचाये गये दुख तथा (३) प्राकृतिक विपदाओं से उत्पन्न दुख जिन पर किसी का वश नहीं होता है। श्रीमद्भागवत का शुभारम्भ परम पुरुष के प्रति भक्त के आत्मसमर्पण (शरणागति) से होता है। भक्त भलीभाँति जान रहा होता है कि वह भगवान् से एक होते हुए भी उसकी स्थिती उनके नित्य दास के रूप में है। भौतिक विचारधारा के अनुसार मनुष्य झूठे ही अपने को अपने आसपास की सब चीजों का स्वामी मानता है, इसीलिए वह जीवन में तीन प्रकार के संतापों से पीडि़त रहता है। किन्तु ज्योंही उसे नित्य दास रूप में अपनी इस वास्तविक स्थिति का पता चल जाता है, तो वह तुरन्त इन सभी कष्टों से मुक्त हो जाता है। जीव जब तक भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व जमाने का प्रयास करता है, तब तक वह परमेश्वर का दास नहीं बन सकता। भगवान् की सेवा मनुष्य के आध्यात्मिक स्वरूप की विशुद्ध चेतना द्वारा की जाती है। इस सेवा से वह समस्त भौतिक अवरोधों से तुरन्त मुक्त हो जाता है।
इससे भी बढक़र, श्रीमद्भागवत श्री व्यासदेव द्वारा वेदान्त-सूत्र पर की गई व्यक्तिगत टीका है। इसका लेखन उन्होंने अपने आध्यात्मिक जीवन की परिपक्वावस्था में नारदजी के अनुग्रह से किया। श्री व्यासदेव भगवान् नारायण के प्रामाणिक अवतार हैं, अत: उनकी प्रामाणिकता पर किसी प्रकार का प्रश्न नहीं उठाया जा सकता। वे अन्य सभी वैदिक साहित्य के भी रचयिता हैं, तो भी वे श्रीमद्भागवत के अध्ययन को उन सबों से बढक़र बताते हैं। अन्य पुराणों में विभिन्न विधियाँ दी गई हैं, जिनके द्वारा देवताओं की पूजा की जा सकती है। किन्तु भागवत में केवल परमेश्वर का उल्लेख है। परमेश्वर समग्र शरीर हैं और अन्य सारे देवता इस शरीर के विभिन्न अंग हैं। फलस्वरूप परमेश्वर की पूजा करने पर अन्य देवताओं को पूजने की आवश्यकता नहीं रहती।
परमेश्वर तुरन्त ही भक्त के हृदय में स्थित हो जाते हैं। भगवान् चैतन्य महाप्रभु ने श्रीमद्भागवत को निर्मल पुराण बताया है, अत: यह अन्य समस्त पुराणों से भिन्न है।
इस दिव्य सन्देश को ग्रहण करने की उचित विधि यह है कि इसे विनीत भाव से सुना जाय। चुनौती देने की प्रवृत्ति से इस दिव्य सन्देश को ग्रहण करने में मदद नहीं मिल सकती। यहाँ पर उचित मार्गदर्शन के लिए जो एक शब्द प्रयुक्त है, वह है शुश्रूषु। मनुष्य को इस दिव्य सन्देश को सुनने के लिए उत्सुक रहना चाहिए। निष्ठापूर्वक सुनने (श्रवण करने) की कामना ही इसकी पहली योग्यता है।
कम भाग्यशाली व्यक्ति इस श्रीमद्भागवत को सुनने में बिल्कुल रुचि नहीं दिखाते। इसकी विधि सरल है, किन्तु इसे व्यवहार में लाना कठिन है। भाग्यहीन व्यक्तियों को व्यर्थ सामाजिक तथा राजनीतिक बातें सुनने के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है, किन्तु जब उन्हें भक्तों की सभा में श्रीमद्भागवत सुनने के लिए आमन्त्रित किया जाता है, तो वे सहसा अन्यमनस्क हो उठते हैं। कभी-कभी भागवत के व्यवसायी कथावाचक सहसा भगवान् की गुह्य लीलाओं में पहुँच जाते हैं और उनकी व्याख्या यौन (अश्लील) साहित्य के रूप में करते हैं। श्रीमद्भागवत तो प्रारम्भ से सुनने के लिए निर्मित है। जो लोग इस ग्रन्थ को आत्मसात् कर सकते हैं, उनका उल्लेख इसी श्लोक में है, “कोई व्यक्ति अनेक पुण्य कर्मों के बाद श्रीमद्भागवत सुनने के योग्य बन पाता है।” महामुनि व्यासदेव बुद्धिमान एवं विचारवान व्यक्तियों को आश्वासन देते हैं कि श्रीमद्भागवत का श्रवण करने से उन्हें भगवान् का प्रत्यक्ष साक्षात्कार हो सकता है। वेदों में वर्णित साक्षात्कार की विभिन्न अवस्थाओं को पार किये बिना ही, इस सन्देश को ग्रहण करने के लिए सहमत होने मात्र से, मानव परमहंस पद को तुरन्त प्राप्त कर सकता है।