कलिम्—कलियुग (कलहप्रिय लौह युग) ; आगतम्—आया हुआ; आज्ञाय—जानकर; क्षेत्रे—भूभाग में; अस्मिन्— इस; वैष्णवे—विशेष रूप से भगवान् के भक्तों के लिए; वयम्—हम; आसीना:—बैठे हुए; दीर्घ—दीर्घकालीन; सत्रेण—यज्ञ द्वारा; कथायाम्—शब्दों में; स-क्षणा:—अपने अवकाश के समय; हरे:—भगवान् के ।.
अनुवाद
यह भलीभाँति जानकर कि कलियुग का प्रारम्भ हो चुका है, हम इस पवित्र स्थल में भगवान् का दिव्य सन्देश सुनने के लिए तथा इस प्रकार यज्ञ सम्पन्न करने के लिए दीर्घसत्र में एकत्र हुए हैं।
तात्पर्य
सत्य युग, स्वर्णयुग अथवा रजत एवं ताम्रयुग अर्थात्, त्रेता या द्वापर युग की भाँति यह कलियुग आत्म-साक्षात्कार के लिए तनिक भी उपयुक्त नहीं है। सत्य युग में एक लाख वर्ष की उम्र वाले लोग आत्म-साक्षात्कार के लिए दीर्घकालीन ध्यान करने में समर्थ थे। तथा त्रेता युग में जब जीवन की अवधि दस हजार वर्ष की थी, तो महान यज्ञों के अनुष्ठान से आत्म-साक्षात्कार प्राप्त किया जाने लगा और द्वापर युग में जब जीवन-अवधि एक हजार वर्ष हो गई, तो भगवान् की पूजा द्वारा यह आत्म-साक्षात्कार प्राप्त किया जाने लगा। किन्तु इस कलियुग में अधिकतम् जीवन-अवधि केवल एक सौ वर्ष की है और वह भी कठिनाइयों से पूर्ण है, अत: इसमें आत्म- साक्षात्कार के लिए जिस विधि की संस्तुति की गई है, वह है भगवान् के पवित्र नाम, यश तथा उनकी लीलाओं का श्रवण और कीर्तन करना। नैमिषारण्य के ऋषियों ने यह विधि ऐसे स्थान में प्रारम्भ की जो भगवद्भक्तों के लिए ही था। उन्होंने एक हजार वर्ष की दीर्घ अवधि तक की भगवान् की लीलाएँ सुनने के लिए अपने आप को तैयार किया था। इन ऋषियों के उदाहरण से हमें यह सीखना चाहिए कि भागवत का नियमित श्रवण तथा कीर्तन ही आत्म-साक्षात्कार का एकमात्र साधन है। अन्य सारे प्रयास समय का अपव्यय मात्र हैं, क्योंकि उनसे कोई लाभप्रद परिणाम नहीं निकलता। भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने भागवत-धर्म की इस पद्धति का उपदेश किया और यह भी बतलाया कि भारतभूमि में जन्म लेने वालों का यह दायित्व है कि वे श्रीकृष्ण के सन्देशों का, प्रमुख रूप से भगवद्गीता के संदेश का, प्रचार-प्रसार करें। जब कोई भगवद्गीता की शिक्षाओं को ठीक से समझ जाय, तो उसे चाहिए कि आत्म-साक्षात्कार के लिए अधिक प्रकाश प्राप्त करने हेतु श्रीमद्भागवत का अध्ययन करे।
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