हम मानते हैं कि दैवी इच्छा ने हमें आपसे मिलाया है, जिससे मनुष्यों के सत्त्व का नाश करने वाले उस कलि रूप दुर्लंघ्य सागर को तरने की इच्छा रखने वाले हम सब आपको नौका के कप्तान के रूप में ग्रहण कर सकें।
तात्पर्य
कलियुग मनुष्यों के लिए अत्यन्त खतरनाक है। यह मानव जीवन तो आत्म- साक्षात्कार के ही निमित्त मिला है, किन्तु इस युग की करालता के कारण लोग जीवन के लक्ष्य को पूरा भूल चुके हैं। इस युग में आयु क्रमश: घटती जायेगी। लोग अपनी स्मृति, कोमल भावनाएँ, बल तथा उत्तम गुण खो देंगे। इस युग की विषमताओं की सूची इस ग्रन्थ के बारहवें स्कन्ध में दी गई हैं। अत: जो लोग इस जीवन का उपयोग आत्म-साक्षात्कार में करना चाहते हैं, उनके लिए यह युग अत्यन्त दुष्कर है। लोग इन्द्रियतृप्ति में इतने अधिक व्यस्त हैं कि वे आत्म- साक्षात्कार को पूरी तरह भूल चुके हैं। उन्मत्तता से वशीभूत वे साफ-साफ कहते हैं कि आत्म- साक्षात्कार की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वे यह नहीं समझते कि यह संक्षिप्त जीवन आत्म-साक्षात्कार की विशाल यात्रा का एक मात्र क्षण है। समूची शिक्षा-पद्धति इन्द्रियतृप्ति की ओर उन्मुख है और यदि कोई विद्वान इस पर थोड़ा भी सोचे, तो वह देखेगा कि इस युग के सारे बच्चों को जानबूझ कर तथाकथित शिक्षारूपी वधशालाओं में भेजा जा रहा है। अतएव विद्वान पुरुषों को इस युग के प्रति सचेष्ट रहना है और यदि वे इस घोर कलियुग रूपी समुद्र को पार करना चाहते हैं तो उन्हें नैमिषारण्य के ऋषियों के पदचिह्नों का अनुसरण करना चाहिए और श्री सूत गोस्वामी या उनके प्रामाणिक प्रतिनिधि को नाव के कर्णधार के रूप में स्वीकार करना चाहिए। वह नाव श्रीमद्भागवत या भगवद्गीता के रूप में ही भगवान् श्रीकृष्ण का सन्देश ही है।
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