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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 1: मुनियों की जिज्ञासा  »  श्लोक 3
 
 
श्लोक  1.1.3 
निगमकल्पतरोर्गलितं फलं
शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् ।
पिबत भागवतं रसमालयं
मुहुरहो रसिका भुवि भावुका: ॥ ३ ॥
 
शब्दार्थ
निगम—वैदिक साहित्य; कल्प-तरो:—कल्पतरु का; गलितम्—पूर्णत रूप से परिपक्व; फलम्—फल; शुक— श्रीमद्भागवत के मूल वक्ता श्रील शुकदेव गोस्वामी के; मुखात्—होठों से; अमृत—अमृत; द्रव—तरल अतएव सरलता से निगलने योग्य; संयुतम्—सभी प्रकार से पूर्ण; पिबत—पान करो; भागवतम्—भगवान् के साथ चिर सम्बन्ध के विज्ञान से युक्त ग्रन्थ को; रसम्—रस (जो आस्वाद्य है वह); आलयम्—मुक्ति प्राप्त होने तक या मुक्त अवस्था में भी; मुहु:—सदैव; अहो—हे; रसिका:—रस का पूर्ण ज्ञान रखने वाले रसिक जन; भुवि—पृथ्वी पर; भावुका:—पटु तथा विचारवान ।.
 
अनुवाद
 
 हे विज्ञ एवं भावुक जनों, वैदिक साहित्य रूपी कल्पवृक्ष के इस पक्व फल श्रीमद्भागवत को जरा चखो तो। यह श्री शुकदेव गोस्वामी के मुख से निस्सृत हुआ है, अतएव यह और भी अधिक रुचिकर हो गया है, यद्यपि इसका अमृत-रस मुक्त जीवों समेत समस्त जनों के लिए पहले से आस्वाद्य था।
 
तात्पर्य
 पिछले दो श्लोकों से यह निश्चित रूप से सिद्ध हो गया है कि श्रीमद्भागवत दिव्य साहित्य है, जो अपने दिव्य गुणों के कारण अन्य समस्त वैदिक शास्त्रों को पीछे छोड़ देता है। यह समस्त लौकिक कार्यकलापों तथा लौकिक ज्ञान से परे है। इस श्लोक में बताया गया है कि श्रीमद्भागवत न केवल उत्कृष्ट साहित्य है, अपितु यह समस्त वैदिक साहित्य का परिपक्व फल है। दूसरे शब्दों में, यह सभी वैदिक ज्ञान का नवनीत (सार) है। यह सब दृष्टि में रखते हुए, यह समझना चाहिए कि धैर्य एवं नम्रता से श्रवण करना निश्चित रूप से आवश्यक है। अत: मनुष्य को चाहिए कि वह श्रीमद्भागवत द्वारा प्रदत्त सन्देशों तथा उपदेशों को अत्यन्त आदर के साथ तथा ध्यानपूर्वक ग्रहण करे।

वेदों की तुलना कल्पवृक्ष से की गयी है, क्योंकि उनमें मनुष्य के लिए ज्ञेय सारी बातें पाई जाती हैं। उनमें सांसारिक आवश्यकताओं के साथ-साथ आध्यात्मिक साक्षात्कार का भी वर्णन हुआ है। वेदों में सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक, सैन्य, चिकित्सीय, रासायनिक, भौतिक, पराभौतिक विषयों से सम्बद्ध ज्ञान के नियामक सिद्धान्त तथा जीवन के लिए जो भी आवश्यक है, सभी का समावेश है। इनसे भी बढक़र, इसमें आध्यात्मिक साक्षात्कार के लिए विशेष निर्देश हैं। नियामक ज्ञान में जीव को क्रमश: आध्यात्मिक स्तर तक ऊपर उठाया जाता है और सर्वोच्च आध्यात्मिक अनुभूति तो यह जान लेना है कि भगवान् समस्त रसों के आगार हैं।

इस भौतिक जगत में उत्पन्न होने वाले प्रथम जीव ब्रह्मा से लेकर एक क्षुद्र चींटी तक, सारे जीव इन्द्रियों द्वारा कोई न कोई रस प्राप्त करने के इच्छुक रहते हैं। इन इन्द्रिय सुखों को पारिभाषिक रूप से रस कहा जाता है। ऐसे रस कई प्रकार के होते हैं। प्रामाणिक शास्त्रों में बारह रसों के नाम इस प्रकार गिनाये गये हैं—(१) रौद्र (क्रोध), (२) अद्भुत (आश्चर्य), (३) शृंगार (दाम्पत्य प्रेम), (४) हास्य (प्रहसन), (५) वीर (शौर्य), (६) दया (करुणा), (७) दास्य (दासता), (८) सख्य (मैत्रीभाव), (९) भयानक (भय), (१०) बीभत्स (आघात्), (११) शान्त (उदासीनता) तथा (१२) वात्सल्य (माता पिता का स्नेह)।

इन समस्त रसों का समग्र सार स्नेह या प्रेम है। मूल रूप से प्रेम के ऐसे लक्षण उपासना, सेवा, मैत्री, वात्सल्य तथा दाम्पत्य प्रेम के रूप में प्रकट होते हैं। जब ये पाँच अनुपस्थित होते हैं, तो प्रेम अप्रत्यक्ष रूप में क्रोध, आश्चर्य, हास्य, वीरता, भय, बीभत्सता आदि में प्रकट होता है। उदाहरणार्थ, यदि कोई पुरुष किसी स्त्री से प्रेम करता है, तो यह शृंगार रस हुआ। किन्तु यदि ऐसे प्रेम में बाधा पहुँचती है तो आश्चर्य, क्रोध, आघात या भय तक उत्पन्न हो सकता है। कभी-कभी दो व्यक्तियों के प्रेम सम्बन्धों का अन्त नृशंस हत्या में होता है। ऐसे रसों का प्रदर्शन मनुष्य तथा मनुष्य के मध्य और पशु तथा पशु के बीच प्रदर्शित होता है। इस जगत में रस का ऐसा आदान प्रदान न तो मनुष्य तथा पशु के बीच हो पाता है, न ही मनुष्य तथा अन्य किसी योनि के साथ। ऐसे रस का आदान-प्रदान तो एक जैसी योनि के जीवों में ही होता है। किन्तु जहाँ तक आत्माओं का प्रश्न है, वे गुणात्मक रूप से परमेश्वर के समरूप हैं। इसीलिए प्रारम्भ में रसों का आदान प्रदान आध्यात्मिक जीव (जीवात्मा) तथा आध्यात्मिक परम पूर्ण, भगवान् के साथ होता था। यह आध्यात्मिक आदान-प्रदान या रस, आध्यात्मिक जगत में जीवों तथा परमेश्वर के बीच, पूरी तरह पाया जाता है।

इसीलिए श्रुति मन्त्रों में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को “समस्त रसों का निर्झर स्रोत” कहा गया है। जब जीव परमेश्वर की संगति करता है और उनके साथ अपने स्वाभाविक रस का आदान प्रदान करता है, तो वह सचमुच सुखी होता है।

ये श्रुति मन्त्र बताते हैं कि प्रत्येक जीव का एक स्वाभाविक स्वरूप होता है, जिसमें भगवान् के साथ एक विशिष्ट प्रकार के रस का आदान-प्रदान किया जाता है। केवल मुक्त अवस्था में इस मौलिक रस का पूर्ण रूप से अनुभव हो पाता है। भौतिक जगत में रस का अनुभव विकृत रूप में होता है जो अस्थायी होता है। इस प्रकार भौतिक जगत में रस का प्रदर्शन रौद्र (क्रोध) आदि- आदि भौतिक रूप में होता है।

अतएव जो व्यक्ति कार्यकलापों के मूल तत्त्व रूप इन विभिन्न रसों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेता है, वही मूल रसों के छद्म स्वरूपों को भौतिक जगत में प्रतिबिम्बित होते समझ सकता है। विद्वान अध्येता वास्तविक रस का उसके आध्यात्मिक रूप में आस्वादन करना चाहता है। प्रारम्भ में वह परमेश्वर से एकाकार होना चाहता हैं। इस प्रकार अल्पज्ञ अध्यात्मवादी, विभिन्न रसों को जाने बिना, पूर्ण आत्मा से एकाकार होने के बोध से ऊपर नहीं जा पाते।

इस श्लोक में यह निश्चित रूप से कहा गया है कि वह आध्यात्मिक रस, जिसका आस्वादन मुक्त अवस्था में भी किया जाता है, श्रीमद्भागवत के साहित्य में अनुभव किया जा सकता है, क्योंकि यह वैदिक ज्ञान का पक्व फल है। इस दिव्य साहित्य का विनीत भाव से श्रवण करने पर मनुष्य मनवांछित पूर्ण आनन्द प्राप्त कर सकता है। किन्तु मनुष्य को इस बात में अत्यन्त सावधानी बरतनी होगी कि इस सन्देश का श्रवण सही स्रोत से किया जाए। श्रीमद्भागवत को पूर्णतया उपयुक्त स्रोत से ही प्राप्त किया गया है। इसे वैकुण्ठलोक से ले आने वाले नारद मुनि हैं, जिन्होंने इसे अपने शिष्य श्री व्यासदेव को प्रदान किया। श्री व्यासदेव ने इस संदेश को अपने पुत्र शुकदेव गोस्वामी को प्रदान किया और फिर उन्होंने इसे महाराज परीक्षित को उनकी मृत्यु से केवल सात दिन पूर्व प्रदान किया। श्रील शुकदेव गोस्वामी अपने जन्म से ही मुक्त आत्मा थे। यहाँ तक कि वे अपनी माता के गर्भ में ही मुक्त थे और जन्म के पश्चात् उन्हें किसी प्रकार की आध्यात्मिक शिक्षा ग्रहण नहीं करनी पड़ी। जन्म के समय कोई भी व्यक्ति न तो लौकिक दृष्टि से, न ही आध्यात्मिक दृष्टि से कुशल होता है। किन्तु पूर्ण रूप से मुक्त आत्मा होने के कारण, श्री शुकदेव गोस्वामी को आध्यात्मिक साक्षात्कार के लिए किसी प्रकार की विकास विधि का अनुसरण नहीं करना पड़ा।

अपितु तीनों गुणों से परे पूर्ण रूप से मुक्त पद पर स्थित रह कर भी, वे उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के इस दिव्य रस के प्रति आकर्षित हुए, जिनकी अर्चना मुक्त जीवों द्वारा वैदिक मन्त्रों से की जाती है। परमेश्वर की लीलाएँ मुक्त जीवों को, संसारी लोगों की अपेक्षा, अधिक आकर्षक लगती हैं। भगवान् किसी भी दृष्टिकोण से निराकार नहीं हैं, क्योंकि दिव्य रस की निष्पत्ति केवल व्यक्ति के साथ ही सम्भव है।

श्रीमद्भागवत में भगवान् की दिव्य लीलाओं का वर्णन है और श्रील शुकेदव गोस्वामी ने क्रमबद्ध रूप में इनका वर्णन किया है। इस प्रकार से विषय-वस्तु सभी वर्गो के मनुष्यों को भाने वाली है, चाहे वे मुक्तिकामी हों या परब्रह्म के साथ तादात्म्य की इच्छा करने वाले हों।

संस्कृत में शुक शब्द का अर्थ तोता भी होता है। जब कोई पका फल ऐसे पक्षियों की लाल चोंच से काट दिया जाता है, तो उसकी मिठास बढ़ जाती है। वैदिक फल जो ज्ञान में पूर्ण विकसित तथा पक्व है, वह श्रील शुकदेव गोस्वामी के होठों से निकला है, जिनकी तुलना तोते से की गई है, इसलिए नहीं कि उन्होंने अपने विद्वान पिता से जिस रूप में सुना था उसी रूप में सुना दिया, अपितु अपनी उस क्षमता के कारण जिसके बल पर उन्होंने इस कृति को सभी वर्गों को भाने वाले रूप में प्रस्तुत किया।

श्रील शुकदेव गोस्वामी के होठों से कथावस्तु इस प्रकार निस्सृत हुई है कि जो भी निष्ठावान श्रोता विनीत भाव से सुनता है, वह तत्काल इसके दिव्य रस का आस्वादन करता है, जो भौतिक जगत के विकृत रसों से भिन्न है। यह पक्व फल सर्वोच्च कृष्णलोक से एकाएक नहीं आ गिरा। प्रत्युत यह गुरु-शिष्य परम्परा की शृंखला से होता हुआ, सावधानी पूर्वक बिना किसी परिवर्तन या अवरोध के नीचे तक आया है। ऐसे मूर्ख लोग जो दिव्य गुरु-शिष्य परम्परा से सम्बद्ध नहीं हैं, वे रास नृत्य के सर्वोच्च दिव्य रस को, उन शुकदेव गोस्वामी के चरणचिह्नों का अनुगमन किए बिना, समझने का प्रयत्न करके भयंकर भूल करते हैं, जिन्होंने इस फल को दिव्य अनुभूति की अवस्थानुसार अत्यन्त सावधानी से प्रस्तुत किया है। मनुष्य को चाहिए कि शुकदेव गोस्वामी जैसे महापुरुषों को ध्यान में रखकर श्रीमद्भागवत की स्थिति को जानें, जिन्होंने विषय का प्रतिपादन बड़ी सावधानी से किया है। भागवत की यह शिष्य-परम्परा बताती है कि भविष्य में भी श्रीमद्भागवत को ऐसे व्यक्ति से समझा जाय, जो श्रील शुकदेव गोस्वामी का पूर्ण प्रतिनिधित्व करता हो। ऐसा व्यावसायिक व्यक्ति जो अवैध रूप से भागवत सुना कर व्यापार चलाता है, वह शुकदेव गोस्वामी का सही प्रतिनिधित्व नहीं करता। ऐसे व्यक्ति का पेशा एकमात्र अपनी जीविका कमाना है। अत: ऐसे व्यवसायी व्यक्तियों के भाषण नहीं सुनने चाहिए। ऐसे व्यक्ति इस गम्भीर विषय को समझने की क्रमिक विधि का अभ्यास किये बिना, सीधा गुह्यतम अंशों को सुनाते हैं। वे सामान्य रूप से रास-नृत्य की कथावस्तु में गोता लगाने लगते हैं और मूर्ख किस्मके लोग इसका बुरा अर्थ लगाते हैं। कुछ लोग इसे अनैतिक बताते हैं और अन्य लोग अपनी मूर्खतापूर्ण व्याख्याओं के द्वारा इस पर पर्दा डालने का प्रयास करते हैं। उनमें श्रील शुकदेव गोस्वामी के चरणचिह्नों पर चलने की लेशमात्र इच्छा नहीं रहती।

अत: निष्कर्ष यह निकलता है कि रस के गम्भीर छात्र को श्रील शुकदेव गोस्वामी से चली आने वाली शिष्य-परम्परा से भागवत का सन्देश प्राप्त करना चाहिए, जिन्होंने भागवत का वर्णन दिव्य विज्ञान के विषय में अल्पज्ञानी उन संसारी लोगों की तुष्टि के लिए किसी मनमाने ढंग से नहीं, अपितु शुरू से सुनियोजित ढंग से प्रारम्भ किया है। श्रीमद्भागवत को इतनी सावधानी से प्रस्तुत किया गया है कि निष्ठावान तथा गम्भीर व्यक्ति तुरन्त वैदिक ज्ञान के इस पक्व फल का आनन्द, शुकदेव गोस्वामी या उनके प्रामाणिक प्रतिनिधि के मुख से निस्सृत अमृत रस का पान करके, उठा सकता है।

 
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