पिछले तीन श्लोक श्रीमद्भागवत के उपोद्घात के रूप में थे। अब इस महान ग्रंथ का मुख्य विषय प्रस्तुत किया जा रहा है। श्रीमद्भागवत प्रथम बार श्रील शुकदेव गोस्वामी द्वारा सुनाये जाने के बाद, अब दूसरी बार नैमिषारण्य में सुनाया जा रहा था। वायवीय तन्त्र में कहा गया है कि इस विशिष्ट ब्रह्माण्ड के शिल्पी ब्रह्मा ने एक ऐसे विराट चक्र की कल्पना की, जो ब्रह्माण्ड को चारों ओर से घेर सके। इस विराट चक्र की धुरी एक विशिष्ट स्थान पर स्थित की गई, जिसे नैमिषारण्य कहते हैं। इसी प्रकार से नैमिषराण्य के वन का एक अन्य प्रसंग वराह पुराण में आता है, जिसमें यह कहा गया है कि इस स्थान पर यज्ञ करने से आसुरी लोगों की शक्ति घटती है। अतएव ब्राह्मण लोग ऐसे यज्ञों को नैमिषारण्य में करना श्रेष्ठ समझते हैं।
भगवान् विष्णु के भक्त उनकी प्रसन्नता के लिए सभी प्रकार के यज्ञ करते हैं। भक्तगण निरन्तर भगवान् की सेवा में लगे रहते हैं, जबकि पतित जीव भौतिक सुखों में आसक्त रहते हैं। भगवद्गीता में कहा गया है कि भौतिक जगत में भगवान् विष्णु की इच्छा के अतिरिक्त जिस किसी कारण से कोई भी कर्म किया जाता है, कर्ता के लिए वह और अधिक बन्धन का कारण होता है। इसीलिए ऐसा आदेश दिया गया है कि सारे कर्म विष्णु तथा उनके भक्तों की प्रसन्नता के लिए यज्ञरूप में सम्पन्न किये जाँय। इससे प्रत्येक व्यक्ति को शान्ति तथा सम्पन्नता प्राप्त होगी।
बड़े-बड़े ऋषि-मुनि जनसामान्य का कल्याण करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। फलस्वरूप शौनक आदि ऋषि एक महान तथा निरन्तर चलने वाले यज्ञ-अनुष्ठान को सम्पन्न करने के उद्देश्य से इस नैमिषारण्य नामक पवित्र स्थान पर एकत्र हुए। भुलक्कड़ लोग शान्ति तथा सम्पन्नता पाने का सही मार्ग नहीं जानते, किन्तु साधु पुरुष इसे भलीभाँति जानते हैं। फलस्वरूप वे समस्त लोगों के कल्याण के लिए ऐसा कर्म करना चाहते हैं, जिससे विश्व में शान्ति आ सके। वे समस्त जीवों के शुभचिन्तक मित्र हैं और वे व्यक्तिगत कष्ट झेलकर भी समस्त लोगों के कल्याण के लिए भगवान् की सेवा में लगे रहते हैं। भगवान् विष्णु एक विशाल वृक्ष के तुल्य हैं तथा देवता, मनुष्य, सिद्ध, चारण, विद्याधर एवं अन्य सारे जीवों सहित बाकी सब इस वृक्ष की शाखाएँ, उपशाखाएँ तथा पत्तियाँ जैसे हैं। यदि वृक्ष की जड़ को पानी से सींचा जाय, तो वृक्ष के सारे भागों का स्वयमेव पोषण होता जाता है। केवल उन शाखाओं तथा पत्तों का पोषण नहीं होता, जो वृक्ष से अलग हो गए हैं। वे निरन्तर सींचते रहने पर भी धीरे-धीरे सूख जाते हैं। इसी प्रकार जब यह मानव समाज अलग हुए शाखाओं तथा पत्तियों की तरह भगवान् से रहित हो जाता है, तो उसकी सिंचाई (पोषण) नहीं की जा सकती और जो ऐसा करता भी है, वह अपनी शक्ति तथा साधनों का अपव्यय करता है।
आधुनिक भौतिकतावादी समाज परमेश्वर से अपना सम्बन्ध तोड़े हुए है। उसकी सारी योजनाएँ जो नास्तिक नेताओं द्वारा तैयार की जाती हैं, वे पग-पग पर विफल होंगी यह निश्चित है। फिर भी वे जगने का नाम नहीं लेते।
इस युग में जागृति लाने की निर्दिष्ट विधि भगवान् के पवित्र नामों का सामूहिक कीर्तन है। भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने इसकी विधियों तथा साधनों को अत्यन्त वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत किया है। बुद्धिमान लोग उनके उपदेशों का लाभ वास्तविक शान्ति तथा सम्पन्नता लाने के लिए उठा सकते हैं। श्रीमद्भागवत भी उसी उद्देश्य से प्रस्तुत किया गया है। आगे चलकर इसकी विशद व्याख्या की जायेगी।