श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 1: मुनियों की जिज्ञासा  »  श्लोक 9
 
 
श्लोक  1.1.9 
तत्र तत्राञ्जसायुष्मन् भवता यद्विनिश्चितम् ।
पुंसामेकान्तत: श्रेयस्तन्न: शंसितुमर्हसि ॥ ९ ॥
 
शब्दार्थ
तत्र—वहाँ; तत्र—वहाँ; अञ्जसा—सहज; आयुष्मन्—दीर्घ जीवन का आशीर्वाद पाये; भवता—आपके द्वारा; यत्—जो कुछ; विनिश्चितम्—निश्चित किया; पुंसाम्—जनसामान्य के लिए; एकान्तत:—नितान्त; श्रेय:—परम कल्याण; तत्— उस; न:—हमको; शंसितुम्—समझाने के लिए; अर्हसि—योग्य हो ।.
 
अनुवाद
 
 अतएव, दीर्घायु की कृपा प्राप्त आप सरलता से समझ में आने वाली विधि से हमें समझाइये कि आपने जन साधारण के समग्र एवं परम कल्याण के लिए क्या निश्चय किया है?
 
तात्पर्य
 भगवद्गीता में आचार्य की पूजा की संस्तुति की गई है। आचार्य तथा गोस्वामी निरन्तर जनसाधारण के कल्याण, विशेष रूप से उनके आध्यात्मिक कल्याण, के विचारों में लीन रहते हैं। आध्यात्मिक कल्याण होने पर भौतिक कल्याण स्वत: हो जाता है। अतएव आचार्यगण सामान्य जनता को आध्यात्मिक कल्याण के लिए उपदेश देते हैं। इस कलियुग या कलहप्रिय लौह-युग की अक्षमताओं को देखते हुए, मुनियों ने सूत गोस्वामी से प्रार्थना की कि वे सारे शास्त्रों का निचोड़ प्रस्तुत करें, क्योंकि इस युग के लोग सभी प्रकार से पतित हो गये हैं। अत: मुनियों ने समग्र कल्याण की जिज्ञासा की। यही लोगों का परम कल्याण है। इस युग के लोगों की पतित अवस्था का वर्णन निम्नलिखित प्रकार से हुआ है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥