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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 10: द्वारका के लिए भगवान् कृष्ण का प्रस्थान  »  श्लोक 1
 
 
श्लोक  1.10.1 
शौनक उवाच
हत्वा स्वरिक्थस्पृध आततायिनो
युधिष्ठिरो धर्मभृतां वरिष्ठ: ।
सहानुजै: प्रत्यवरुद्धभोजन:
कथं प्रवृत्त: किमकारषीत्तत: ॥ १ ॥
 
शब्दार्थ
शौनक: उवाच—शौनक ने पूछा; हत्वा—वध करने के बाद; स्वरिक्थ—वैध पैतृक सम्पत्ति; स्पृध:—छीनने की इच्छा से; आततायिन:—आततायी; युधिष्ठिर:—राजा युधिष्ठिर; धर्म-भृताम्—धर्म का पालन करने वालों का; वरिष्ठ:—सबसे बड़ा; सह-अनुजै:—अपने छोटे भाइयों सहित; प्रत्यवरुद्ध—रोक दिया; भोजन:—आवश्यकताओं को स्वीकार करना; कथम्—कैसे; प्रवृत्त:—लगा हुआ; किम्—क्या; अकारषीत्—सम्पन्न किया; तत:—तत्पश्चात् ।.
 
अनुवाद
 
 शौनक मुनि ने पूछा : जो महाराज युधिष्ठिर की वैध पैतृक सम्पत्ति को छीनना चाहते थे,उन शत्रुओं का वध करने के बाद महानतम धर्मात्मा युधिष्ठिर ने अपने भाइयों की सहायता से अपनी प्रजा पर किस प्रकार शासन चलाया? निश्चित ही वे अपने साम्राज्य का उपभोग मुक्त होकर अनियन्त्रित चेतना से नहीं कर सके।
 
तात्पर्य
 महाराज युधिष्ठिर समस्त धर्मात्माओं में श्रेष्ठ थे। अतएव वे साम्राज्य का भोग करने के लिए अपने चचेरे भाइयों से लडऩे के लिए तैयार नहीं हो रहे थे—वे सही प्रयोजन के लिए लड़े, क्योंकि हस्तिनापुर का राज्य उनकी वैध पैतृक सम्पत्ति था और उनके चचेरे भाई उसको हड़पना चाह रहे थे। अतएव वे भगवान् श्रीकृष्ण के मार्गदर्शन में सही प्रयोजन के लिए लड़े, किन्तु वे अपनी विजय के फलों का भोग न कर पाये, क्योंकि उनके सारे चचेरे भाई युद्ध में मारे गये थे। अतएव उन्होंने साम्राज्य पर शासन तो चलाया, किन्तु इसे कर्तव्य समझ कर और अपने छोटे भाइयों की सहायता से चलाया। शौनक ऋषि की जिज्ञासा महत्त्वपूर्ण थी; वे यह जानना चाह रहे थे कि जब महाराज युधिष्ठिर को साम्राज्य भोगने का अवसर मिला, तब उनका आचरण कैसा था?
 
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