सर्वे—सभी; ते—वे; अनिमिषै:—बिना पलक झपके; अक्षै:—आँखों से; तम् अनु—उनके पीछे-पीछे; द्रुत-चेतस:— द्रवित हृदय; वीक्षन्त:—उनको देखते हुए; स्नेह-सम्बद्धा:—शुद्ध प्रेम से बँधे; विचेलु:—हिलने-डुलने लगे; तत्र तत्र— इधर-उधर; ह—उन्होंने ऐसा किया ।.
अनुवाद
उन सबके हृदय उनके आकर्षण-रूपी पात्र में द्रवित हो रहे थे। वे उन्हें अपलक नेत्रों से देख रहे थे और (स्नेह-बन्धन में बँधकर) व्यग्रता से इधर-उधर मचल रहे थे।
तात्पर्य
कृष्ण स्वाभाविक रूप से सभी जीवों के लिए आकर्षक हैं, क्योंकि वे समस्त शाश्वतों में प्रधान शाश्वत हैं। एकमात्र वे ही अनेकों शाश्वतों के पालक हैं। यह कठोपनिषद् का कथन है और इस प्रकार मनुष्य भगवान् के साथ अपने शाश्वत सम्बन्ध को जागृत करके—जिसे वह भगवान् की भ्रामक शक्ति माया के चक्र से वशीभूत होकर भूल चुका है—स्थायी शान्ति तथा समृद्धि प्राप्त कर सकता है। एक बार भी यह सम्बन्ध जब हल्का सा भी पुनर्जागरित हो जाता है, बद्धजीव भौतिक शक्ति के भ्रम से मुक्त हो जाता है और भगवान् की संगति के लिए पागल हो उठता है। यह संगति केवल भगवान् के साक्षात् सम्पर्क से ही नहीं स्थापित होती, अपितु उनके नाम, यश, रूप, तथा गुणों के सान्निध्य से भी होती है। श्रीमद्भागवत बद्धजीवों को इस सिद्ध अवस्था को प्राप्त करने के लिए शुद्ध भक्त से विनीत भाव से श्रवण के द्वारा प्रशिक्षित करता है।
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