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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 10: द्वारका के लिए भगवान् कृष्ण का प्रस्थान  »  श्लोक 16
 
 
श्लोक  1.10.16 
प्रासादशिखरारूढा: कुरुनार्यो दिद‍ृक्षया ।
ववृषु: कुसुमै: कृष्णं प्रेमव्रीडास्मितेक्षणा: ॥ १६ ॥
 
शब्दार्थ
प्रासाद—राजमहल की; शिखर—छत पर; आरूढा:—चढ़ी हुई; कुरु-नार्य:—कुरुराजवंश की नारियाँ; दिदृक्षया— देखने की इच्छा से; ववृषु:—वर्षा की; कुसुमै:—फूलों से; कृष्णम्—भगवान् कृष्ण पर; प्रेम—प्रेम तथा स्नेहवश; व्रीडा-स्मित-ईक्षणा:—लजीली हँसी से देखते हुए ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् को देखने की प्रेममयी इच्छा से कुरुओं की राजवंशी स्त्रियाँ राजमहल की छत पर चढ़ गईं और स्नेह तथा लज्जा से युक्त हँसती हुई भगवान् पर पुष्पों की वर्षा करने लगीं।
 
तात्पर्य
 लज्जा स्त्रियों का विशिष्ट अतिरिक्त प्राकृतिक सौंदर्य है, और इसके कारण उन्हें पुरुषों से आदर मिलता है। महाभारत काल में अर्थात् पाँच हजार से अधिक समय पूर्व भी यह प्रथा प्रचलित थी। जो लोग विश्व इतिहास से परिचित नहीं हैं, ऐसे कम बुद्धि वाले लोग ही कहते हैं कि पुरुषों से स्त्रियों को पृथक् रखने की प्रथा भारत में मुसलमानों के आगमन में चालु हुई। महाभारत की यह घटना निश्चित रूप से यह सिद्ध करती है कि राजमहल की स्त्रियाँ पर्दा करती थीं (पुरुषों से बहुत कम मिलती थीं) और वे सब, नीचे न आकर जहाँ कृष्ण थे, राजमहल की छत पर चढ़ गईं और वहीं से कृष्ण के प्रति सम्मान जताने के लिए उन पर पुष्पों की वर्षा करने लगीं। यहाँ यह भी कहा गया है कि महल की छत पर स्त्रियाँ लज्जा के कारण मुस्करा भी रही थीं। यह लज्जा स्त्रियों को प्रकृति का वरदान है, इससे उनकी सुन्दरता तथा प्रतिष्ठा में वृद्धि होती है, भले ही वे उच्चकुल की न भी हों या कम सुन्दर हों। हमें इसका निजी अनुभव है। एक मेहतरानी स्त्रियोचित लज्जा के कारण अनेक भद्र पुरुषों की श्रद्धा-भाजन बनी हुई थी। सडक़ पर घूमनेवाली अर्धनग्न नारियाँ सम्मान नहीं प्राप्त कर पातीं, लेकिन एक लज्जाशील मेहतरानी सबों से सम्मान पाती है।

मानव सभ्यता मनुष्य को माया के चंगुल से छूटने में सहायक बनने के लिए है, जैसाकि भारत के ऋषियों-मुनियों की संकल्पना थी। स्त्री की भौतिक सुन्दरता मोह है, क्योंकि शरीर वास्तव में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, इत्यादि से बना हुआ है। लेकिन पदार्थ के साथ जीवन्त स्फुलिंग का संयोग है, अतएव यह सुन्दर लगता है। कोई मिट्टी की गुडिय़ा के प्रति आकृष्ट नहीं होता, यद्यपि यह दूसरों का ध्यान आकृष्ट करने के उद्देश्य से अच्छी से अच्छी बनाई जाती है। मृत शरीर में कोई सौंदर्य नहीं होता, क्योंकि कोई भी तथाकथित सुन्दर स्त्री के मृत शरीर को स्वीकार नहीं करेगा। अतएव निष्कर्ष यह निकला कि आत्मा का स्फुलिंग ही सुन्दर है और आत्मा की सुन्दरता से ही मनुष्य बाह्य शरीर के सौंदर्य के प्रति आकृष्ट होता है। इसीलिए वैदिक ज्ञान हमें झूठी सुन्दरता के प्रति आकृष्ट होने से मना करता है। लेकिन चूँकि अब हम अविद्या के अन्धकार में हैं, अतएव वैदिक सभ्यता स्त्री तथा पुरुष को मिलने की सीमित छूट देती है। वेदों का कहना है कि स्त्री अग्नि तुल्य है और मनुष्य नवनीत (मक्खन) के समान है। नवनीत अग्नि के संसर्ग से अवश्य पिघलता है, अतएव आवश्यकता पडऩे पर ही उन्हें पास-पास लाना चाहिए। और लज्जा ही अनियन्त्रित मिलने-जुलने पर प्रतिबन्ध-स्वरूप है। यह प्रकृति का वरदान है और इसका उपयोग होना चाहिए।

 
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