अश्रूयन्त—सुना जाकर; आशिष:—आशीर्वाद; सत्या:—सभी सच हैं; तत्र—यहाँ; तत्र—वहाँ; द्विज-ईरिता:—विद्वान ब्राह्मणों द्वारा उच्चरित; न—नहीं; अनुरूप—अनुरूप; अनुरूपा:—योग्य; च—भी; निर्गुणस्य—परम का; गुण- आत्मन:—मनुष्य की भूमिका निभाते हुए ।.
अनुवाद
जहाँ-तहाँ यह सुनाई पड़ रहा था कि कृष्ण को दिये गये आशीर्वाद, न तो उनके उपयुक्त हैं, न अनुपयुक्त, क्योंकि वे सब उन परम पुरुष के लिए थे जो इस समय मनुष्य की भूमिका निभा रहे थे।
तात्पर्य
जगह-जगह भगवान् श्रीकृष्ण को आशीर्वाद देने के उद्देश्य से वैदिक ध्वनियाँ हो रही थीं। ये आशीर्वाद इस अर्थ में उपयुक्त थे, कि भगवान् एक सामान्य मनुष्य की-सी भूमिका निभा रहे थे मानो वे महाराज युधिष्ठिर के फुफेरे भाई हों। लेकिन ये अनुपयुक्त भी थे, क्योंकि भगवान् परम पुरूष हैं और उन्हें भौतिक रिश्ते-नातों से कुछ भी लेना-देना नहीं होता। वे तो निर्गुण अर्थात् भौतिक गुणों से रहित हैं, फिर भी वे दिव्य गुणों से ओतप्रोत हैं। दिव्य जगत में कुछ भी विरोधाभासी नहीं होता, जबकि इस सापेक्ष जगत में सभी चीजें इसके उलट होती हैं। उदाहरणार्थ, इस सापेक्ष जगत में श्वेत का विलोम श्याम होता है, लेकिन दिव्य जगत में श्वेत तथा श्याम में कोई अन्तर नहीं होता। अतएव परम पुरुष के प्रसंग में यत्र-तत्र विद्वान ब्राह्मणों द्वारा उच्चरित आशीर्वादात्मक ध्वनियाँ विलोम लग रही थीं, लेकिन जब वे परम पुरुष पर लागू होती हैं तो सारा विरोधाभास दूर हो जाता है और वे दिव्य बन जाती हैं। एक उदाहरण इस बात को स्पष्ट कर देगा। भगवान् श्रीकृष्ण को कभी-कभी चोर कहा जाता है। अपने शुद्ध भक्तों में वे माखनचोर के नाम से अत्यधिक प्रसिद्ध हैं। वे बचपन में वृन्दावन में अपने पड़ोसियों के घरों से माखन चुराते थे। तब से वे चोर-रूप में प्रसिद्ध हैं। लेकिन चोर के रूप में प्रसिद्ध होने पर भी उनकी चोर के रूप में पूजा की जाती है, जबकि सांसारिक जगत में चोर की कभी प्रशंसा नहीं की जाती और उसे दंडित किया जाता है। चूँकि वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं, अतएव उन पर सब कुछ लागू होता है और समस्त विरोधाभासों के बावजूद वे भगवान् बने रहते हैं।
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