सूत: उवाच—सूत गोस्वामी ने उत्तर दिया; वंशम्—वंश; कुरो:—राजा कुरु का; वंश-दव-अग्नि—बाँसों से लगनेवाली जंगल की आग; निर्हृतम्—नि:शेष, दग्ध; संरोहयित्वा—वंश की पौध; भव-भावन:—सृष्टि के पालक; हरि:—भगवान् श्रीकृष्ण; निवेशयित्वा—पुन: स्थापित करके; निज-राज्ये—अपने (उनके) राज्य में; ईश्वर:—परमेश्वर; युधिष्ठिरम्— महाराज युधिष्ठिर को; प्रीत-मना:—अपने मन में प्रसन्न; बभूव ह—हुए ।.
अनुवाद
सूत गोस्वामी ने कहा : विश्व के पालनकर्ता भगवान् श्रीकृष्ण महाराज युधिष्ठिर को उनके साम्राज्य में पुन: प्रस्थापित करके एवं क्रोध की दावाग्नि से विनष्ट हुए कुरुवंश को पुनरुज्जीवित करके अत्यन्त प्रसन्न हुए।
तात्पर्य
इस संसार की तुलना उस दावाग्नि के साथ की जाती है, जो बाँस की झाडिय़ों में घर्षण से उत्पन्न होती है। ऐसी दावाग्नि स्वत: लगती है, क्योंकि बाँसों में घर्षण बाह्य कारण के बिना होता है। इसी प्रकार इस संसार में जो लोग प्रकृति पर प्रभुत्व जताना चाहते हैं, उनके क्रोध से युद्ध की अग्नि भडक़ती है, जिससे अवांछित प्रजा समाप्त हो जाती है। ऐसी अग्नियाँ या युद्ध भडक़ते रहते हैं और भगवान् को उनसे कुछ लेना-देना नहीं होता। लेकिन चूँकि वे सृष्टि का पालन करना चाहते हैं, अतएव वे चाहते हैं कि जन-समूह आत्म-साक्षात्कार के सत्यपथ पर चले, जिससे जीव भगवद्धाम में प्रवेश कर सकें। प्रभु चाहते हैं कि कष्ट भोगनेवाले मनुष्य भगवद्धाम उनके पास वापस आ जाँय और तीनों भौतिक तापों से मुक्त हो जाँय। सृष्टि की सारी योजना यही प्रयोजन के लिए बनाइ गई है, लेकिन जो चेतता नहीं, वह भगवान् की मायाशक्ति द्वारा दिये गये कष्टों को इस संसार में भोगता है। अतएव भगवान् चाहते हैं कि उनके प्रामाणिक प्रतिनिधि ही संसार पर शासन चलाए। भगवान् श्रीकृष्ण का अवतार ऐसे राज्य की स्थापना करने तथा ऐसे अवांछित व्यक्तियों का वध करने के लिए हुआ, जिनको उनकी योजना से कुछ सरोकार नहीं रहता। कुरुक्षेत्र का युद्ध भगवान् की योजना के अनुसार लड़ा गया था, जिससे अवाँछित लोगों का सफाया हो जाय और उनके भक्त के अधीन शान्तिपूर्ण साम्राज्य की स्थापना हो। अतएव जब राजा युधिष्ठिर सिंहासन पर बैठे तथा कुरुंवश की पौध (अंकुर) महाराज परीक्षित के रूप में बच गई, तो भगवान् परम प्रसन्न हुए।
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