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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 10: द्वारका के लिए भगवान् कृष्ण का प्रस्थान  »  श्लोक 22
 
 
श्लोक  1.10.22 
स एव भूयो निजवीर्यचोदितां
स्वजीवमायां प्रकृतिं सिसृक्षतीम् ।
अनामरूपात्मनि रूपनामनी
विधित्समानोऽनुससार शास्त्रकृत् ॥ २२ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वे; एव—इस प्रकार; भूय:—फिर से; निज—अपना; वीर्य—पराक्रम; चोदिताम्—सम्पन्नता का; स्व—अपना; जीव—जीव; मायाम्—बाह्य शक्ति; प्रकृतिम्—भौतिक प्रकृति को; सिसृक्षतीम्—पुन: सृष्टि करते समय; अनाम—बिना उपाधि के; रूप-आत्मनि—आत्मा के स्वरूप; रूप-नामनी—रूप तथा नाम; विधित्समान:—प्रदान करने की इच्छा करते; अनुससार—हस्तान्तरित कर दिया; शास्त्र-कृत्—शास्त्रों के संग्राहक ।.
 
अनुवाद
 
 तब भगवान् ने अपने अंशस्वरूप जीवों को, नाम तथा रूप प्रदान करने की इच्छा से, उन्हें भौतिक प्रकृति के मार्गदर्शन के अन्तर्गत कर दिया। उनकी ही अपनी शक्ति से भौतिक प्रकृति को पुन: सृष्टि करने के लिए अधिकृत कर दिया गया है।
 
तात्पर्य
 सारे जीव भगवान् के अंश हैं। वे दो प्रकार के हैं—नित्य मुक्त तथा नित्य बद्ध। नित्य मुक्त शाश्वत रूप से मुक्त जीव हैं और वे भगवान् के दिव्य धाम में, जो दृश्य जगत से परे है, दिव्य प्रेममयी सेवा के आदान-प्रदान में नित्य निमग्न रहते हैं। लेकिन नित्य बद्ध अर्थात् शाश्वत रूप से बद्धजीवों का जिम्मा बहिरंगा शक्ति, माया पर रहता है कि वह परम पिता के प्रति उनकी विद्रोहात्मक मनोवृत्ति को सुधारे। नित्य बद्ध यह सदैव भूले रहते हैं कि भगवान् के साथ उनका सम्बन्ध उनके अंश के रूप में है। वे माया द्वारा पदार्थ के उत्पादों के रूप में मोहग्रस्त रहते हैं और इस तरह वे सुखी बनने के लिए भौतिक जगत में नाना प्रकार की योजनाएँ बनाते रहते हैं। वे इन योजनाओं को खुशी-खुशी आगे बढ़ाते हैं, लेकिन भगवान् की इच्छा से योजना बनानेवाले तथा उनकी योजनाएँ कुछ काल बाद ध्वस्त हो जाती हैं—जैसाकि पहले कहा जा चुका है। भगवद्गीता (९.७) में इसकी पुष्टि इस प्रकार हुई है, “हे कुन्ती-पुत्र! कल्प के अन्त में सारे जीव मेरी प्रकृति में लीन हो जाते हैं और जब पुन: सृष्टि करने का समय आता है, तो मैं अपनी बहिरंगा शक्ति से सृष्टि प्रारम्भ करता हूँ।”

भूय: शब्द पुन: पुन: का सूचक है अर्थात् यह बताता है कि सृष्टि, पालन तथा संहार की क्रिया भगवान् की बहिरंगा शक्ति से अनवरत चलती रहती है। वे ही सबके कारण हैं। लेकिन सारे जीव, जो स्वाभाविक रूप से भगवान् के अंश हैं और मधुर सम्बन्ध को भुलाये रहते हैं, उन्हें बहिरंगा शक्ति के चंगुल से छूटने का अवसर पुन: प्रदान किया जाता है। और जीव की चेतना को पुर्नजागृत करने के लिए, शास्त्रों की सृष्टि भी भगवान् ही करते हैं। बद्धजीव के लिए वैदिक वाङ्मय दिशा निर्देश करनेवाला है, जिससे वे भौतिक जगत तथा भौतिक शरीर की सृष्टि तथा संहार के पुनरावर्तन से मुक्त हो सकें।

भगवद्गीता में भगवान् कहते हैं, “यह उत्पन्न हुआ जगत तथा भौतिक शक्ति मेरे वश में हैं। प्रकृति के प्रभाव से, वे स्वत: बार-बार उत्पन्न होते हैं और यह सब मेरे द्वारा मेरी बहिरंगा शक्ति के माध्यम से किया जाता है।”

वस्तुत: आध्यात्मिक स्फुलिंग-रूपी जीवों का कोई नाम या रूप नहीं होता। लेकिन भौतिक रूपों तथा नामों की भौतिक शक्ति पर प्रभुत्व जताने की इच्छा-पूर्ति के लिए, उन्हें ऐसे झूठे भोग का अवसर प्रदान किया जाता है और उसी के साथ ही साथ उन्हें शास्त्रों के माध्यम से वास्तविक स्थिति को समझने का अवसर दिया जाता है। मूर्ख तथा भुलक्कड़ जीव सदैव झूठे रूपों तथा झूठे नामों में व्यस्त रहता है। आधुनिक राष्ट्रवाद ऐसे झूठे नामों तथा झूठे रूपों की चरम परिणति है। मनुष्य झूठे नाम और मिथ्या रूप के पीछे पागल बने रहते हैं। किन्हीं परिस्थितियों में प्राप्त शरीर के रूप को वास्तविक मान लिया जाता है और इस प्रकार से प्राप्त नाम भी अनेक “वादों” के नाम पर शक्ति का दुरुपयोग करने में बद्धजीवों को मोहित करता है। तथापि शास्त्र वास्तविक स्थिति को समझने के लिए संकेत प्रदान करते हैं, किन्तु लोग विभिन्न देश-काल के लिए भगवान् द्वारा निर्मित शास्त्रों से शिक्षा ग्रहण करते हुए कतराते हैं। उदाहरणार्थ, भगवद्गीता प्रत्येक मानव के लिए पथप्रदर्शिका है, लेकिन भौतिक शक्ति के जादू से वे भगवद्गीता द्वारा बताई गई जीवन शैली को नहीं अपनाते। जिसने भगवद्गीता के सिद्धान्तों को पूरी तरह समझ लिया है, उसके लिए श्रीमद्भागवत स्नातकोत्तर अध्ययन का विषय है। दुर्भाग्यवश लोगों में उसके लिए रुचि नहीं है, अतएव वे माया के चंगुल में फँसकर बारम्बार जन्म-मृत्यु के चक्र में आ जाते हैं।

 
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