स वा अयं यत्पदमत्र सूरयो
जितेन्द्रिया निर्जितमातरिश्वन: ।
पश्यन्ति भक्त्युत्कलितामलात्मना
नन्वेष सत्त्वं परिमार्ष्टुमर्हति ॥ २३ ॥
शब्दार्थ
स:—वह; वै—भगवत्कृपा द्वारा; अयम्—यह; यत्—जो; पदम् अत्र—यहाँ वही भगवान् श्रीकृष्ण हैं; सूरय:—बड़े-बड़े भक्त-गण; जित-इन्द्रिया:—जिन्होंने इन्द्रियों के प्रभाव को जीत लिया है; निर्जित—पूर्ण रूप से संयमित; मातरिश्वन:—जीवन; पश्यन्ति—देख सकते हैं; भक्ति—भक्तिमय सेवा से; उत्कलित—विकसित; अमल-आत्मना—जिनके मन पूरी तरह विमल हैं उनका; ननु एष:—निश्चित रूप से इसी के द्वारा; सत्त्वम्—जगत, अस्तित्व; परिमार्ष्टुम्—मन को पूरी तरह स्वच्छ करने के लिए; अर्हति—के योग्य है ।.
अनुवाद
ये वे ही पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं, जिनके दिव्य रूप का अनुभव बड़े-बड़े भक्तों द्वारा किया जाता है, जिन्होंने सुदृढ़ भक्ति द्वारा तथा जीवन एवं इन्द्रियों पर पूर्ण संयम द्वारा, भौतिक चेतना से पूर्ण रूप से विशुद्ध हो चुके हैं। तथा अस्तित्व को विमल बनाने का यही एकमात्र मार्ग है।
तात्पर्य
जैसा कि भगवद्गीता में कहा गया है, भगवान् केवल भक्तिमय सेवा द्वारा अपने वास्तविक रूप में जाने जा सकते हैं। अतएव यहाँ पर बताया गया है कि केवल महान् भगवद्भक्त, जो कठिन भक्तिमय सेवा द्वारा मन के सारे भौतिक मैल को धो सकते हैं, वे ही भगवान् को यथारूप अनुभव कर सकते हैं। जितेन्द्रिय का अर्थ है, इन्द्रियों पर पूरा नियन्त्रण रखने वाला। इन्द्रियाँ शरीर की सक्रिय अंग हैं और उनके कार्यों को रोक पाना सम्भव नहीं। इन्द्रियों को निष्क्रिय बनाने के लिए योग के कृत्रिम साधन सर्वथा निष्फल सिद्ध हुए हैं, यहाँ तक कि विश्वामित्र मुनि जैसे महान् योगी सरीखे के प्रसंग में भी। विश्वामित्र मुनि ने यौगिक समाधि के द्वारा इन्द्रियों को वश में कर रखा था, किन्तु जब उनकी भेंट मेनका (स्वर्ग की अप्सरा) से हो गई, तो वे काम के शिकार हो गये और इन्द्रियों को वश में करने की उनकी कृत्रिम विधि विफल हो गई। लेकिन शुद्ध भक्त के किस्से में ऐसा नहीं होता कि कृत्रिम साधन से इन्द्रियों को कार्य करने से रोका जाय, अपितु उन्हें अन्य अच्छे कार्यों में व्यस्त रखा जाता है। जब इन्द्रियाँ अधिक आकर्षक कार्यों में लग जाती हैं, तो किन्हीं निकृष्ट कार्यों के प्रति उनके उन्मुख होने की सम्भावना नहीं रह जाती। भगवद्गीता में कहा गया है कि इन्द्रियों को अच्छे कार्यों में लगाने के ही द्वारा ही वश में रखा जा सकता है। भक्ति की अनिवार्यता है कि इन्द्रियों को विमल किया जाय या भक्तिमय सेवा में लगाया जाय। भक्ति का अर्थ निष्क्रियता नहीं है। भगवान् की सेवा में जो कुछ भी किया जाता है, वह उनकी भौतिक प्रकृति से तुरन्त ही पवित्र हो जाता है। भौतिक धारणा अज्ञान के कारण ही है। वासुदेव के परे कुछ भी नहीं है। ग्रहणशील इन्द्रियों के दीर्घकालीन अभ्यास से ही विद्वान के हृदय में धीरे-धीरे वासुदेव अनुभूति जागृत होती है। लेकिन ‘वासुदेव ही सब कुछ हैं’ ऐसा स्वीकार करने के ज्ञान में ही इस विधि का समापन होता है। भक्तिमय सेवा में यही विधि शुरूआत से स्वीकार की जाती है और भगत्वकृपा से अन्त:करण में भगवान् के आदेश से, सारा वास्तविक ज्ञान प्रकट हो जाता है। अतएव भक्तिमय सेवा द्वारा इन्द्रियों को वश में करना एकमात्र सरलतम साधन है।
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