स वा अयं सख्यनुगीतसत्कथो
वेदेषु गुह्येषु च गुह्यवादिभि: ।
य एक ईशो जगदात्मलीलया
सृजत्यवत्यत्ति न तत्र सज्जते ॥ २४ ॥
शब्दार्थ
स:—वे; वै—भी; अयम्—यह; सखि—हे सखी; अनुगीत—वर्णित; सत्-कथ:—श्रेष्ठ लीलाएँ; वेदेषु—वेदों में; गुह्येषु—गोपनीय रीति से; च—भी; गुह्य-वादिभि:—गुह्य भक्तों द्वारा; य:—जो; एक:—केवल एक; ईश:—परम नियन्ता; जगत्—सारी सृष्टि के; आत्म—परमात्मा; लीलया—लीलाओं के प्राकट्य द्वारा; सृजति—सृजन करते हैं; अवति अत्ति—पालन करते हैं तथा संहार करते हैं; न—कभी नहीं; तत्र—वहाँ; सज्जते—उसमें आसक्त होते हैं ।.
अनुवाद
हे सखियो, यहाँ पर वही भगवान् हैं, जिनकी आकर्षक तथा गोपनीय लीलाओं का वर्णन बड़े-बड़े भक्तों द्वारा वैदिक साहित्य के गुह्यतम अंशों में हुआ है। वे ही भौतिक जगत की सृष्टि करने वाले, पालने वाले तथा संहार करनेवाले हैं, फिर भी वे उससे अप्रभावित रहते हैं।
तात्पर्य
भगवद्गीता में कहा गया है कि सारा वैदिक साहित्य भगवान् श्रीकृष्ण की महानता का यशोगान करता है। यहाँ पर भागवत में भी इसकी पुष्टि की गई है। वेदों की अनेक शाखाएँ तथा उपशाखाएँ हैं और इसका विस्तार महान भक्तों यथा व्यास, नारद, शुकदेव गोस्वामी, कुमारगण, कपिल, प्रह्लाद, जनक, बलि तथा यमराज जैसे भगवान् के शक्त्यावेश अवतारों द्वारा हुआ है, लेकिन उनकी लीलाओं का गुह्य अंश, गुह्य भक्त शुकदेव गोस्वामी द्वारा श्रीमद्भागवत में विशेष रूप से वर्णित हुआ है। वेदान्त-सूत्र या उपनिषदों में उनकी लीलाओं के गुह्य अंशों का संकेत मात्र हुआ है। ऐसे वैदिक साहित्य में, जैसे कि उपनिषदों में भगवान् के स्वरुप को स्पष्ट रूप से संसारी अवधारणा से पृथक् दिखाया गया है। उनकी पहचान पूर्ण रूप से आध्यात्मिक होने के कारण उनके रूप, नाम, गुण, साज-समान इत्यादि को विस्तारपूर्वक पदार्थ से पृथक् दिखाया गया है। इसीलिए कभी-कभी अल्प बुद्धिवाले उन्हें निराकार मानने का भ्रम कर बैठते हैं। लेकिन वास्तव में वे परम पुरुष, भगवान् हैं और परमात्मा या निराकार ब्रह्म के रूप में उनकी अभिव्यक्ति केवल आंशिक रूप से ही होती है।
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