अहो बत—यह कितना आश्चर्यजनक है; स्व:-यशस:—स्वर्ग की महिमा; तिरस्करी—पराजित करनेवाली; कुशस्थली— द्वारका; पुण्य—शुभकर्म; यशस्करी—प्रसिद्ध; भुव:—पृथ्वीलोक; पश्यन्ति—देखते हैं; नित्यम्—निरन्तर; यत्—जो; अनुग्रह-इषितम्—वर देने के लिए; स्मित-अवलोकम्—मृदु मुसकान भरी चितवन; स्व-पतिम्—जीवों के आत्मा (कृष्ण) को; स्म—करते थे; यत्-प्रजा:—उस स्थान के निवासी ।.
अनुवाद
निस्सन्देह, यह कितना आश्चर्यजनक है कि द्वारका ने स्वर्ग के यश को पिछाड़ कर पृथ्वी की प्रसिद्धि को बढ़ाया है। द्वारका के निवासी उनके प्रिय स्वरूप में समस्त जीवों के आत्मा (कृष्ण) का सदैव दर्शन करते हैं। भगवान् उन पर दृष्टिपात करते हैं और अपनी मुसकान भरी चितवन से उन्हें कृतार्थ करते हैं।
तात्पर्य
स्वर्ग में इन्द्र, चन्द्र, वरुण तथा वायु जैसे देवता निवास करते हैं और पुण्यात्माएँ वहाँ तभी पहुँचते हैं, जब पृथ्वी पर वे अनेक पुण्यकर्म करते हैं। आधुनिक विज्ञानी स्वीकार करते हैं कि उच्चलोकों में काल की व्यवस्था पृथ्वी से भिन्न है। इस प्रकार प्रामाणिक शास्त्रों से यह पता चलता है कि वहाँ पर आयु (हमारी गणना के अनुसार) दस हजार वर्ष है। पृथ्वी के छह मास, स्वर्ग के एक दिन के बराबर होते हैं। इसी प्रकार भोग की सुविधाएँ भी अधिक हैं और वहाँ के निवासियों की सुन्दरता अतिशय है। पृथ्वी के सामान्य लोग स्वर्ग पहुँचने के लिए अत्यन्त इच्छुक रहते हैं, क्योंकि उन्होंने सुन रखा है कि पृथ्वी की अपेक्षा वहाँ जीव को अधिक सुविधाएँ प्राप्त होती हैं। अब वे अन्तरिक्ष यान द्वारा चन्द्रमा पर पहुँचने का प्रयास कर रहे हैं। इन सब बातों पर विचार करते हुए पृथ्वी की अपेक्षा स्वर्ग अधिक प्रसिद्ध है। लेकिन द्वारका के कारण पृथ्वी की प्रसिद्धि ने स्वर्ग को पीछे छोड़ दिया है, क्योंकि यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण ने राजा के रूप में राज्य किया। इस पृथ्वी के तीन स्थान—वृन्दावन, मथुरा तथा द्वारका—ब्रह्माण्ड के प्रसिद्ध लोकों से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। ये तीनों स्थान इसीलिए निरन्तर पवित्र हैं, क्योंकि जब भी भगवान् अवतरित होते हैं, तो वे विशेषकर इन्हीं तीन स्थानों में अपनी दिव्य लीलाओं का प्रदर्शन करते हैं। ये निरन्तर भगवान् के पवित्र स्थल हैं और आज भी भगवान् के यहाँ दृष्टिगोचर न होने पर भी भक्तगण इन पवित्र स्थानों का लाभ उठाते हैं। भगवान् सभी जीवों के आत्मा हैं और वे चाहते हैं कि सारे जीव अपने स्वरूप में रहकर, उनके सान्निध्य में दिव्य जीवन में भाग लेते रहें। उनका आकर्षक रूप तथा उनकी मधुर मुसकान प्रत्येक के हृदय में घर करने वाली है और एक बार ऐसा हो जाने पर जीव भगवान् के धाम में प्रवेश पा जाता है, जहाँ से कोई भी लौटता नहीं। इसकी पुष्टि भगवद्गीता में हुई है।
भले ही स्वर्ग के ग्रह भौतिक भोग की अच्छी सुविधाएँ देने के लिए अत्यन्त प्रसिद्ध क्यों न हों, लेकिन भगवद्गीता (९.२०-२१) से हम जान पाते हैं कि ज्योंही संचित पुण्य क्षीण हो जाते हैं, त्योंही मनुष्य को पृथ्वी पर पुन: आना पड़ता है। द्वारका स्वर्गलोक से इसलिए अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि जिस किसी को भी भगवान् की स्मित चितवन की प्राप्ति हुई है, उसे इस सड़ी-गली पृथ्वी पर फिर से नहीं आना पड़ता—जिसे भगवान् ने भी जिसे दुख का स्थान बताया है। न केवल यह पृथ्वी, अपितु ब्रह्माण्ड के सारे लोक दुख के स्थान हैं, क्योंकि ब्रह्माण्ड के किसी भी लोक में न तो शाश्वत जीवन है, न शाश्वत आनन्द और न शाश्वत ज्ञान है। जो व्यक्ति भगवान् की भक्तिमय सेवा में लीन रहता है, उसके लिए उपर्युक्त तीनों स्थानों—द्वारका, मथुरा या वृन्दावन—में से किसी एक में रहने की संस्तुति की जाती है। चूँकि इन तीनों स्थानों में भक्ति का प्रवर्द्धन होता है, अतएव जो लोग शास्त्रों की बताई विधि से नियमों का पालन करने के लिए वहाँ जाते हैं, उन्हें वैसा ही फल मिलता है, जैसा भगवान् श्रीकृष्ण के उपस्थित रहने पर मिलता था। उनका धाम तथा स्वयं वे अभिन्न हैं और आज भी कोई शुद्ध भक्त किसी अन्य अनुभवी भक्त के निर्देशन में सारे फल प्राप्त कर सकता है।
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