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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 10: द्वारका के लिए भगवान् कृष्ण का प्रस्थान  »  श्लोक 3
 
 
श्लोक  1.10.3 
निशम्य भीष्मोक्तमथाच्युतोक्तं
प्रवृत्तविज्ञानविधूतविभ्रम: ।
शशास गामिन्द्र इवाजिताश्रय:
परिध्युपान्तामनुजानुवर्तित: ॥ ३ ॥
 
शब्दार्थ
निशम्य—सुनकर; भीष्म-उक्तम्—भीष्म द्वारा कहा हुआ; अथ—तथा; अच्युत-उक्तम्—अच्युत भगवान् कृष्ण ने जो कुछ कहा था; प्रवृत्त—लगे रह कर; विज्ञान—पूर्ण ज्ञान; विधूत—पूर्ण रूप से धुल गये; विभ्रम:—सारे सन्देह; शशास—शासन किया; गाम्—पृथ्वी पर; इन्द्र—स्वर्ग का राजा; इव—सदृश; अजित-आश्रय:—दुर्जय भगवान् द्वारा रक्षित; परिधि-उपान्ताम्—समुद्रों सहित; अनुज—छोटे भाई; अनुवर्तित:—उनके द्वारा पालन किया जाकर ।.
 
अनुवाद
 
 भीष्मदेव तथा अच्युत भगवान् श्रीकृष्ण ने जो कुछ कहा था, उससे प्रबुद्ध होकर महाराज युधिष्ठिर परिपूर्ण ज्ञान विषयक मामलों में व्यस्त हो गये, क्योंकि उनके सारे सन्देह दूर हो चुके थे। इस प्रकार उन्होंने पृथ्वी तथा सागरों पर राज्य किया और उनके छोटे भाई उनका साथ देते रहे।
 
तात्पर्य
 जब महाराज युधिष्ठिर समुद्र-पर्यन्त पृथ्वी पर शासनारूढ़ थे, तो उस समय भी आधुनिक अंग्रेजियत के ज्येष्ठाधिकार या सबसे बड़े को उत्तराधिकार जैसा नियम प्रचलित था। उस काल में हस्तिनापुर (अब दिल्ली का एक अंश) का राजा, समुद्रों समेत, विश्व का (चक्रवर्ती) सम्राट होता था और यह क्रम महाराज युधिष्ठिर के पौत्र महाराज परीक्षित तक चलता रहा। महाराज युधिष्ठिर के छोटे भाई उनके मन्त्री तथा राज्य के सेनानायकों के रूप में कार्य करते थे और राजा के धर्मात्मा भाइयों का आपस में पूर्ण सहयोग था। महाराज युधिष्ठिर पृथ्वी के साम्राज्य पर शासन करने के लिए आदर्श राजा या भगवान् श्रीकृष्ण के आदर्श प्रतिनिधि थे और उनकी तुलना स्वर्ग के प्रतिनिधि शासक राजा इन्द्र से की जा सकती थी। जिस प्रकार इन्द्र, चन्द्र, सूर्य, वरुण तथा वायु जैसे देवता ब्रह्माण्ड के विभिन्न ग्रहों के प्रतिनिधि राजा हैं, उसी प्रकार महाराज युधिष्ठिर भी पृथ्वी के साम्राज्य पर शासन चलानेवाले प्रतिनिधि राजा थे। वे आधुनिक प्रजातन्त्र के अल्प तरह के अप्रबुद्ध राजनीतिक नेता जैसे न थे। उन्हें भीष्मदेव ने तथा अच्युत भगवान् ने भी उपदेश दिया था। अतएव उन्हें हर वस्तु का पूरा ज्ञान था।

आजकल, राज्य का निर्वाचित कार्यकारी प्रमुख कठपुतली के समान होता है, क्योंकि उसके पास राज-शक्ति नहीं होती। यदि वह महाराज युधिष्ठिर की तरह प्रबुद्ध भी होता, तो भी वह अपनी संवैधानिक स्थिति के कारण अपनी इच्छा से कुछ नहीं कर सकता। इसीलिए वैचारिक विषमताओं या खुद के स्वार्थों के कारण पृथ्वी के अनेक राज्य परस्पर लड़-झगड़ रहे हैं। लेकिन महाराज युधिष्ठिर जैसे राजा के पास अपनी खुद की विचार-धारा नहीं थी। उन्हें भी अच्युत भगवान् तथा भगवान् के प्रतिनिधि एवं प्रामाणिक दूत भीष्मदेव के उपदेशों का अनुगमन करना होता था। शास्त्रों का उपदेश है कि मनुष्य को चाहिए कि, किसी व्यक्तिगत स्वार्थ तथा स्व-निर्मित विचारधारा के बिना, परम प्रमाण तथा अच्युत भगवान् का अनुगमन करे। इसीलिए महाराज युधिष्ठिर महासागरों सहित सारे संसार पर शासन कर सके, क्योंकि जो नियम थे वे अमोघ थे और वैश्विक रूप से सबों पर समान रूप से लागू होते थे। एक ही विश्व-राज्य की कल्पना तभी पूरी हो सकती है, जब हम अच्युत अधिकारी का अनुगमन करें। एक अपूर्ण मानव ऐसी विचारधारा का सृजन नहीं कर सकता, जो सबके लिए स्वीकार्य हो। केवल पूर्ण तथा अच्युत पुरुष ही ऐसा कार्यक्रम बना सकता है, जो प्रत्येक स्थान पर लागू होता हो और जिसका पालन संसार के सारे लोगों द्वारा हो सके। शासन चलानेवाला तो व्यक्ति होता है, निराकार सरकार नहीं। यदि व्यक्ति पूर्ण है, तो सरकार भी पूर्ण है। यदि व्यक्ति मूर्ख है, तो सरकार भी मूर्खों का घर है। यही प्रकृति का नियम है। अयोग्य राजाओं तथा प्रशासकों के सम्बन्ध में अनेक कथाएँ हैं। अतएव कार्यकारी प्रमुख को महाराज युधिष्ठिर जैसा प्रशिक्षित व्यक्ति होना चाहिए और विश्व पर शासन चलाने के लिए उसके पास पूरी राजसत्ता होनी चाहिए। विश्व राज्य की कल्पना महाराज युधिष्ठिर जैसे पूर्ण राजा के राज्यकाल में ही साकार हो सकती है। उन दिनों संसार सुखी था, क्योंकि विश्व में महाराज युधिष्ठिर जैसे राजा शासन चलाते थे।

 
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