श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 10: द्वारका के लिए भगवान् कृष्ण का प्रस्थान  »  श्लोक 30
 
 
श्लोक  1.10.30 
एता: परं स्त्रीत्वमपास्तपेशलं
निरस्तशौचं बत साधु कुर्वते ।
यासां गृहात्पुष्करलोचन: पति-
र्न जात्वपैत्याहृतिभिर्हृदि स्पृशन् ॥ ३० ॥
 
शब्दार्थ
एता:—ये सब स्त्रियाँ; परम्—सर्वोच्च; स्त्रीत्वम्—स्त्रीत्व; अपास्तपेशलम्—बिना व्यक्तित्व के; निरस्त—विहीन; शौचम्—शुद्धि; बत साधु—धन्य हैं; कुर्वते—करते हैं; यासाम्—जिनके; गृहात्—घर से; पुष्कर-लोचन:—कमल नेत्रोंवाले; पति:—पति; न जातु—कभी भी नहीं; अपैति—जाता है; आहृतिभि:—भेंट द्वारा; हृदि—हृदय में; स्पृशन्— प्रिय ।.
 
अनुवाद
 
 इन सारी स्त्रियों ने व्यक्तित्व तथा शुद्धि से विहीन होते हुए भी, अपने जीवन को धन्य किया। उनके पति कमलनयन भगवान् ने उन्हें घर में कभी अकेले नहीं छोड़ा। वे उन्हें बहुमूल्य भेंट प्रदान करके उनके हृदयों को प्रसन्न बनाते रहे।
 
तात्पर्य
 भगवद्भक्त परिशुद्ध हो चुके जीव होते हैं। ज्योंही भक्त भगवान् के चरणकमलों की शरण में सच्चे हृदय से आ जाते हैं, भगवान् उन्हें स्वीकार कर लेते हैं और भक्त सारे भौतिक कल्मषों से रहित हो जाते हैं। ऐसे भक्त प्रकृति के तीनों गुणों से ऊपर होते हैं। भक्त के लिए कोई शारीरिक अयोग्यता नहीं होती, जिस प्रकार गंगा जल में गंदे नाले का जल मिल जाने पर उसमें कोई गुणात्मक अन्तर नहीं रह जाता। स्त्रियाँ, वैश्य तथा शूद्र अधिक बुद्धिमान नहीं होते, अतएव उनके लिए ईश्वर-तत्त्व को समझ पाना या भगवान् की भक्तिमय सेवा में लग पाना कठिन होता है। वे अधिक भौतिकतावादी होते हैं और इनसे भी कम किरात, हूण, आन्ध्र, पुलिन्द, पुल्कश, आभीर, कंक, यवन, खस इत्यादि होते हैं, किन्तु यदि वे सब ठीक से भगवद्भक्ति में लग जाँय तो उन सबका उद्धार हो सकता है। भगवान् की सेवा में लगने पर उपाधियों की अपात्रता हट जाती है और वे शुद्ध आत्माओं के रूप में भगवद्धाम में प्रवेश करने के अधिकारी बन जाते हैं।

भौमासुर के चंगुल में फँसी बालाओं ने अपने उद्धार के लिए निष्ठापूर्वक भगवान् श्रीकृष्ण की प्रार्थना की थी और अपनी इस भक्ति और निष्ठा से वे तुरन्त शुद्ध बन गईं। अतएव भगवान् ने इन्हें पत्नी-रूप में स्वीकार किया और उनके जीवन धन्य हो गये। उनका मान तब और भी बढ़ गया जब भगवान् ने उनके अत्यन्त समर्पित पति के रूप में भूमिका निभाई।

भगवान् अपनी १६,१०८ पत्नियों के साथ अनवरत रहते चले आए थे। उन्होंने अपने आपको १६,१०८ पूर्णांशों में विस्तारित किया और इनमें से प्रत्येक भगवान् थे जो आदि पुरुष से तनिक भी भिन्न न थे। श्रुतिमन्त्र पुष्टि करते हैं कि भगवान् अपना विस्तार अनेक में कर सकते हैं। इतनी सारी पत्नियों के पति रूप में, वे उन सबको मँहगी से मँहगी भेंट देकर प्रसन्न करते रहे। वे स्वर्ग से पारिजात वृक्ष ले आये और उसे अपनी प्रमुख रानीयों में से एक ऐसी सत्यभामा के महल में लगाया। अतएव यदि कोई चाहता है कि कृष्ण उसके पति बनें, तो भगवान् ऐसी इच्छाएँ पूर्णरूपेण पूरी करते हैं।

 
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