अजात-शत्रु:—जिसका कोई शत्रु न था, महाराज युधिष्ठिर; पृतनाम्—सुरक्षा सेनाएँ; गोपीथाय—रक्षा प्रदान करने के लिए; मधु-द्विष:—मधु के शत्रु (श्रीकृष्ण) का; परेभ्य:—अन्यों (शत्रुओं) से; शङ्कित:—भयभीत; स्नेहात्—स्नेह वश; प्रायुङ्क्त—संलग्न; चतु:-अङ्गिणीम्—चतुरंगिनी सेना ।.
अनुवाद
यद्यपि महाराज युधिष्ठिर का कोई शत्रु न था, तो भी उन्होंने असुरों के शत्रु, भगवान् श्रीकृष्ण के साथ जाने के लिए चतुरंगिणी सेना (घोड़ा, हाथी, रथ तथा पैदल सेना) लगा दी। शत्रु से बचाव और भगवान् से स्नेह के कारण महाराज ने ऐसा किया।
तात्पर्य
घोड़े, हाथी, रथ तथा मनुष्य—ये प्राकृतिक रक्षासाधन हैं। घोड़ों तथा हाथियों को पर्वतों या जंगलों तथा मैदानों में कहीं भी जाने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। रथ पर सवार योद्धा शक्तिशाली तारों के बल पर अनेक घोड़ो तथा हाथियों से लड़ सकते थे, जो कि आधुनिक आणिक अस्त्र के समान है। महाराज युधिष्ठिर अच्छी तरह जानते थे कि कृष्ण सबों के मित्र तथा शुभचिन्तक हैं, फिर भी ऐसे अनेक असुर भी ते, जो स्वभाववश भगवान् से ईर्ष्या रखते थे। अतएव कोई उन पर आक्रमण न कर दे, तथा स्नेहवश भी, उन्होंने भगवान् कृष्ण के अंगरक्षकों के रूप में चतुरंगिणी सेना लगा दी। आवश्यकता पडऩे पर, श्रीकृष्ण उन लोगों के आक्रमण से अपनी रक्षा कर सकते थे, जो उन्हें अपना शत्रु मानते थे फिर भी उन्होंने महाराज युधिष्ठिर द्वारा किया गया यह प्रबन्ध स्वीकार कर लिया, क्योंकि वे अपने बड़े भाई तथा राजा की आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकते थे। भगवान् अपनी दिव्य लीला में आश्रित का सा खेल खेलते हैं और इस तरह कभी-कभी वे अपनी तथाकथित असहाय बाल्यावस्था में यशोदा माता की देख-रेख स्वीकार करते हैं। यह दिव्य लीला है। भगवान् तथा उनके भक्त के बीच जितना भी दिव्य आदान-प्रदान होता है, वह मूलत: दिव्य आनन्द प्राप्त करने के लिए होता है, जिसकी तुलना ब्रह्मानन्द-स्तर से भी नहीं की जा सकती।
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