कुरु-जाङ्गल—दिल्ली प्रान्त; पाञ्चालान्—पंजाब प्रान्त का भाग; शूरसेनान्—उत्तर प्रदेश का भाग; स—सहित; यामुनान्—यमुना के तटवर्ती जिलों को; ब्रह्मावर्तम्—उत्तरी उत्तर प्रदेश का भाग; कुरुक्षेत्रम्—वह स्थान जहाँ युद्ध लड़ा गया; मत्स्यान्—मत्स्या प्रान्त; सारस्वतान्—पंजाब का एक हिस्सा; अथ—इत्यादि; मरु—मरुस्थल, राजस्थान; धन्वम्—मध्य प्रदेश, जहाँ जल का अभाव है; अति-क्रम्य—निकल कर; सौवीर—सौराष्ट्र; आभीरयो:—गुजरात का हिस्सा; परान्—पश्चिमी दिशा; आनर्तान्—द्वारका प्रान्त; भार्गव—हे शौनक; उपागात्—थक गये; श्रान्त—थकान; वाह:—घोड़े; मनाक् विभु:—लम्बी यात्रा के कारण थोड़ा-सा ।.
अनुवाद
हे शौनक, तब भगवान् कुरुजांगल, पाञ्चाल, शूरसेन, यमुना के तटवर्ती प्रदेश, ब्रह्मावर्त, कुरुक्षेत्र, मत्स्या, सारस्वता, मरुप्रान्त तथा जल के अभाव वाले भाग से होते हुए आगे बढ़े। इन प्रान्तों को पार करने के बाद वे सौवीर तथा आभीर प्रान्त पहुँचे और अन्त में इन सबके पश्चिम की ओर स्थित द्वारका पहुँचे।
तात्पर्य
भगवान् जिन-जिन प्रान्तों से होकर गये, वे उस समय भिन्न नाम से जाने जाते थे, लेकिन जो दिशा दी गई है उससे यह सूचित होता है कि वे दिल्ली, पंजाब, राजस्थान, मध्यप्रदेश, सौराष्ट्र तथा गुजरात से होकर यात्रा करते हुए, अन्त में अपने निवास-स्थान द्वारका पहुँचे। हमें उन दिनों से आज तक इन प्रान्तों के समानार्थी प्रान्तों के नाम ढूँढने से कोई लाभ मिलने वाला नहीं, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि पाँच हजार वर्ष पूर्व भी, राजस्थान का मरुस्थल तथा मध्यप्रदेश जैसे जल के अभाव वाले प्रान्त विद्यमान थे। मृदा-विशेषज्ञों का यह सिद्धान्त कि मरुस्थल हाल ही में विकसित हुए, भागवत के कथन से पुष्ट नहीं होता। हम इस विषय को भू-गर्भ विज्ञानियों द्वारा खोजे जाने के लिए छोड़े देते हैं, क्योंकि परिवर्तनशील ब्रह्माण्ड में भूगर्भीय विकास की विभिन्न अवस्थाएँ होती हैं। हमें प्रसन्नता है कि भगवान् अब कुरु-प्रान्त से अपने निजी प्रान्त द्वारकाधाम में पहुँच गये हैं। कुरुक्षेत्र वैदिककाल से विद्यमान है, अत: जब व्याख्याकार कुरुक्षेत्र के अस्तित्व को नकारते हैं, तो यह उनकी निरी मूर्खता प्रतीत होती है।
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