श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 10: द्वारका के लिए भगवान् कृष्ण का प्रस्थान  »  श्लोक 36
 
 
श्लोक  1.10.36 
तत्र तत्र ह तत्रत्यैर्हरि: प्रत्युद्यतार्हण: ।
सायं भेजे दिशं पश्चाद्गविष्ठो गां गतस्तदा ॥ ३६ ॥
 
शब्दार्थ
तत्र तत्र—विभिन्न स्थानों में; ह—ऐसी घटना घटी; तत्रत्यै:—स्थानीय निवासियों द्वारा; हरि:—भगवान्; प्रत्युद्यत- अर्हण:—भेंटें तथा पूजा-सम्मान अर्पित किया जाकर; सायम्—शाम; भेजे—आने पर; दिशम्—दिशा; पश्चात्— पश्चिमी; गविष्ठ:—आकाश में सूर्य; गाम्—समुद्र को; गत:—चला गया; तदा—उस समय ।.
 
अनुवाद
 
 इन प्रान्तों से होकर यात्रा करते समय उनका स्वागत किया गया, पूजा की गई और उन्हें विविध भेंटें प्रदान की गईं। संध्या समय सारे स्थानों में संध्या-कालीन अनुष्ठान (कृत्य) करने के लिए भगवान् अपनी यात्रा स्थगित करते। सूर्यास्त के बाद नियमित रूप से ऐसा किया जाता।
 
तात्पर्य
 यहाँ यह बतलाया है कि जब भगवान् यात्रा पर थे, तो वे नियमित रूप से धार्मिक नियमों का पालन करते रहे। ऐसे कतिपय दार्शनिक अनुमान हैं कि भगवान् भी सकाम कर्मों को करने के लिए बाध्य हैं। लेकिन वास्तव में बात ऐसी नहीं है। वे किसी अच्छे या बुरे कर्म पर आश्रित नहीं हैं। चूँकि भगवान् परम पूर्ण हैं, अतएव वे जो भी करते हैं, वह सबों के कल्याण के लिए होता है। किन्तु जब वे पृथ्वी पर अवतरित होते हैं, तो वे भक्तों की रक्षा के लिए तथा अपवित्र अभक्तों के विनाश के लिए कर्म करते हैं। यद्यपि उनके लिए कुछ भी करना अनिवार्य नहीं, किन्तु वे सब कुछ करते हैं, जिससे अन्य लोग उनका अनुगमन कर सकें। वास्तविक उपदेश की विधि यही है; मनुष्य को चाहिए कि स्वयं उचित कर्म करे और अन्यों को भी यही शिक्षा दे, अन्यथा उसका अन्धानुगमन कोई नहीं करेगा। वे स्वयं कर्मफलों के दाता हैं। वे आत्माराम हैं, फिर भी वे हमें शिक्षा देने के लिए शास्त्रों के अनुसार कर्म करते हैं। यदि वे ऐसा न करें, तो सामान्य लोग कुमार्ग पर चले जाँय। लेकिन आगे चलकर, जब मनुष्य भगवान् की दिव्य प्रकृति को समझ पाता है, तो वह उनका अनुकरण नहीं करता। यह सम्भव नहीं है।

मानव समाज में भगवान् वही करते हैं, जो सबका कर्तव्य होता है, लेकिन कभी-कभी वे ऐसा महान् कर्म करते हैं, जो जीव द्वारा अनुकरणीय नहीं होता। यहाँ पर लिखे अनुसार, उनके संध्यावन्दन-कार्य का पालन हर जीव को करना चाहिए, लेकिन उनके द्वारा गोवर्धन का उठाया जाना या गोपियों के साथ उनके रास का अनुकरण कर पाना सम्भव नहीं। कोई सूर्य का अनुकरण नहीं कर सकता, क्योंकि वह गन्दे स्थान के भी जल का शोषण कर लेता है; सर्वशक्तिमान ऐसा कुछ भी कर सकता है, जो सबों के लिए कल्याणप्रद हो, लेकिन यदि हम उनका अनुकरण करने लगें, तो हम अनन्त कठिनाइयों में पड़ जाएँगे। अतएव सारे कर्मों में एक अनुभवी मार्गदर्शक की, अर्थात् गुरु की राय लेनी चाहिए, जो भगवत्कृपा के प्रत्यक्ष रूप हैं। इस तरह निश्चित रूप से प्रगति हो सकेगी।

 
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कंध के अन्तर्गत “द्वारका के लिए भगवान् कृष्ण का प्रस्थान” नामक दशवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
 
 
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