श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 11: भगवान् श्रीकृष्ण का द्वारका में प्रवेश  »  श्लोक 12
 
 
श्लोक  1.11.12 
सर्वर्तुसर्वविभवपुण्यवृक्षलताश्रमै: ।
उद्यानोपवनारामैर्वृतपद्माकरश्रियम् ॥ १२ ॥
 
शब्दार्थ
सर्व—सभी; ऋतु—ऋतुएँ; सर्व—समस्त; विभव—ऐश्वर्य; पुण्य—पवित्र; वृक्ष—पेड़; लता—बेलें; आश्रमै:—आश्रमों के साथ; उद्यान—बगीचे; उपवन—पुष्पोद्यान; आरामै:—क्रीडावन (आरामदायक बगीचे) तथा सुन्दर पार्क से; वृत—घिरे हुए; पद्म-आकर—कमलों के जन्म-स्थल या जल के सुन्दर आगार; श्रियम्—सुन्दरता को बढ़ानेवाले ।.
 
अनुवाद
 
 द्वारकापुरी समस्त ऋतुओं के ऐश्वर्य से पूर्ण थी। उसमें सर्वत्र आश्रम, उद्यान, पुष्पोद्यान, पार्क तथा कमलों से परिपूर्ण जलाशय थे।
 
तात्पर्य
 मानव सभ्यता की पूर्णता प्रकृति के वरदानों का सदुपयोग उनके सहज रूप में करने से सम्भव बनाई जा सकती है। जैसाकि द्वारका के ऐश्वर्य के वर्णन से प्रकट है, उसके चारों ओर पुष्पोद्यान तथा फलों के बगीचे थे और जलाशय थे, जो कमलों से परिपूर्ण थे। यहाँ पर किसी मिल तथा कसाईघर के बल पर चलने वाली फैक्टरी का उल्लेख नहीं है, जो आधुनिक महानगरों के लिए आवश्यक साज-सामग्री है। फिर भी, आधुनिक सुसंस्कृत मनुष्य के अन्त:करण में भी प्रकृति के वरदानों का उपयोग करने की रुचि बरकरार है। आधुनिक सभ्यता के अग्रणी अपने निजी आवासों को ऐसे स्थानों में बनाते हैं, जहाँ सुन्दर बगीचे तथा जलाशय हों, लेकिन सामान्य व्यक्तियों को वे पार्कों तथा बगीचों से रहित दमघोटू स्थानों में रहने के लिए छोड़ देते हैं। लेकिन यहाँ पर हमें द्वारकापुरी का सर्वथा भिन्न वर्णन प्राप्त होता है। ऐसा लगता है कि सारा धाम ऐसे उद्यानों तथा पार्कों एवं कमलों से परिपूर्ण जलाशयों द्वारा घिरा हुआ था। ऐसा लगता है कि सारे लोग प्रकृति द्वारा प्रदत्त फूलों तथा फलों पर निर्भर थे और वहाँ ऐसे उद्योग नहीं थे, जो गन्दी बस्ती तथा झुग्गी-झोपडिय़ाँ बढ़ावा देते है। सभ्यता की प्रगति का अनुमान उन मिलों तथा फैक्टरियों की बढ़ोत्तरी से नहीं लगाया जाता, जिनसे मनुष्य की कोमल भावनाएँ विनष्ट हों, अपितु मनुष्यों में प्रबल आध्यात्मिक प्रवृत्तियों के विकास से लगाया जाता है, जिससे उन्हें भगवद्धाम वापस जाने का अवसर प्राप्त हो सके। फैक्टरियों तथा मिलों का विकास उग्रकर्म कहलाता है और ऐसे कर्म से मनुष्य तथा समाज की सुकोमल भावनाओं का क्षय होकर असुरों का कारागार बना देती हैं।

यहाँ पर हम पवित्र वृक्षों का उल्लेख पाते हैं, जिनमें ऋतु के अनुसार फूल-फल लगते हैं। अपवित्र वृक्ष केवल व्यर्थ के जंगल होते हैं और उनका उपयोग केवल ईंधन के लिए हो सकता है। आधुनिक सभ्यता में ऐसे अपवित्र वृक्षों को सडक़ के दोनों किनारों पर रोपा जाता है। मानव शक्ति का सदुपयोग सुकोमल भावनाओं के विकास के लिए होना चाहिए, जिससे आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त हो सके और इसी में जीवन का समाधान प्राप्त होता है। मनुष्य के शरीर में सूक्ष्म तन्तुओं के विकास के लिए फल, फूल, सुन्दर उद्यान, पार्क, कमलों के बीच क्रीड़ा करते बतख एवं हंसों से युक्त जलाशय तथा प्रचुर दूध तथा मक्खन देनेवाली गाएँ आवश्यक हैं। इसके विपरीत, कारागार तुल्य खानें, फैक्टरियाँ तथा कार्यशालाएँ श्रमिक वर्ग में आसुरी प्रवृत्तियों को जन्म देती हैं। श्रमिक वर्ग के बल पर ही शोषण को प्रश्रय मिलता है, फलस्वरूप उनमें अनेक प्रकार के उग्र संघर्ष होते रहते हैं। द्वारकाधाम का वर्णन मानवीय सभ्यता के लिए एक आदर्श प्रस्तुत करता है।

 
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