द्वारि द्वारि गृहाणां च दध्यक्षतफलेक्षुभि: ।
अलङ्कृतां पूर्णकुम्भैर्बलिभिर्धूपदीपकै: ॥ १५ ॥
शब्दार्थ
द्वारि द्वारि—प्रत्येक घर के द्वार पर; गृहाणाम्—सभी घरों के; च—तथा; दधि—दही; अक्षत—सम्पूर्ण; फल—फल; इक्षुभि:—गन्ने से; अलङ्कृताम्—सजाया गया; पूर्ण-कुम्भै:—जल से पूर्ण घटों से; बलिभि:—पूजन सामग्री सहित; धूप— सुगन्ध बत्ती; दीपकै:—दीपों तथा बत्तियों से ।.
अनुवाद
प्रत्येक घर के द्वार पर दही, अक्षत फल, गन्ना तथा पूरे भरे हुए जलपात्रों के साथ ही पूजन की सामग्री, धूप तथा बत्तियाँ सजा दी गयी थीं।
तात्पर्य
वैदिक प्रथा के अनुसार, स्वागत-विधि शुष्क नहीं होती है। जैसाकि ऊपर उल्लेख है, स्वागत के लिए केवल राजमार्ग तथा गली-कूचे ही नहीं सजाये गये थे, अपितु अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार आवश्यक वस्तुओं जैसे धूप-दीप, फूल, मिठाई तथा स्वादिष्ट खाद्यों द्वारा भगवान् की पूजा भी की गई थी। ये सभी वस्तुएँ भगवान् को अर्पित की गईं और वहाँ पर एकत्र नागरिकों में प्रसाद वितरित किया गया। अतएव यह आज के शुष्क स्वागत जैसा न था। प्रत्येक घर भगवान् का ऐसा स्वागत करने के लिए प्रस्तुत था, अतएव राजमार्गों तथा गली-कूचों के घर-घर में ऐसा प्रसाद नागरिकों को बाँटा गया और यह समारोह सफल रहा। प्रसाद-वितरण के बिना कोई भी उत्सव पूरा नहीं होता और यही वैदिक संस्कृति की शैली है।
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