वसुदेव—राजा शूरसेन के पुत्र, देवकी के पति तथा श्रीकृष्ण के पिता। ये कुन्ती के भाई तथा सुभद्रा के पिता थे। सुभद्रा अपने ममेरे भाई अर्जुन को ब्याही गई थी और यह प्रथा आज भी भारत के कुछ भागों में प्रचलित है। वसुदेव को राजा उग्रसेन के मंत्री के रूप में नियुक्त किया गया था और बाद में उन्होंने उग्रसेन के भाई देवक की आठ कन्याओं के साथ विवाह किया। देवकी उनमें से एक थी। कंस उनका साला था और वसुदेव ने स्वेच्छा से, कंस का बन्दी बनना इस शर्तपर स्वीकार किया कि वे देवकी का आठवाँ पुत्र उसे दे देंगे। लेकिन कृष्ण की इच्छा से यह विफल रहा। पाण्डवों के मातुल के रूप में उन्होंने पाण्डवों के समस्त संस्कारों में सक्रिय भाग लिया। उन्होंने शतशृंगं पर्वत पर कश्यप पुरोहित को बुलवाया और सारे कृत्य सम्पन्न करवाये। कृष्ण जब कंस के बन्दीगृह के भीतर प्रकट हुए, तो वसुदेव ने उन्हें कृष्ण के पालक पिता, नन्द महाराज के घर गोकुल पहुँचाया। वसुदेव का तिरोधान होने के पूर्व, कृष्ण बलदेव-सहित अन्तर्धान हो गये और वसुदेव के तिरोधान के बाद अर्जुन (वसुदेव के भांजे) ने उनका दाह संस्कार किया। अक्रूर—वृष्णिकुल के सेनापति तथा भगवान् कृष्ण के महान् भक्त। उन्होंने एक-मात्र स्तुति की एकाकी विधि द्वारा भगवद्भक्ति में सफलता प्राप्त की। वे अहूक की पुत्री सूतनी के पति थे। जब अर्जुन कृष्ण की इच्छानुसार सुभद्रा का हरण करके ले गये, तो उन्होंने अर्जुन की सहायता की थी। सुभद्रा का सफलतापूर्वक हरण होने के बाद, कृष्ण तथा अक्रूर दोनों ही उसे मिलने गये और इस घटना के बाद अर्जुन को दहेज दिया। सुभद्रा के पुत्र अभिमन्यु का जब महाराज परीक्षित की माता, उत्तरा के साथ विवाह हो रहा था, तब भी अक्रूर उपस्थित थे। अक्रूर के श्वसुर अहूक की उनसे नहीं बनती थी। किन्तु दोनों ही भगवान् के भक्त थे।
उग्रसेन—वृष्णिकुल के सर्वाधिक पराक्रमी राजाओं में से एक और महाराज कुन्तिभोज के चचेरे भाई। इनका दूसरा नाम अहूक था। वसुदेव इनके मंत्री थे और शक्तिशाली कंस इनका पुत्र था। इसी कंस ने अपने पिता को बन्दी बनाया और स्वयं मथुरा का राजा बन गया। भगवान् कृष्ण तथा उनके भाई भगवान् बलराम की कृपा से कंस मारा गया और उग्रसेन पुन: राज्य-सिंहासन पर बैठाये गये। जब शाल्व ने द्वारकापुरी पर आक्रमण कर दिया, तो उग्रसेन वीरता से लड़े और उन्होंने शत्रु को पीछे हटा दिया। उग्रसेन ने नारदजी से भगवान् श्रीकृष्ण की अलौकिकता के विषय में जिज्ञासा की थी। जब यदुवंश का विनाश होना था, तो उग्रसेन को साम्ब के गर्भ से उत्पन्न लोह-पिण्ड सौंपा गया था। इन्होंने लोह-पिण्ड को खण्ड-खण्ड करके इसको घिस घिस कर, द्वारका के समुद्रतट पर समुद्रजल में मिला दिया था। तत्पश्चात् उन्होंने द्वारकापुरी के भीतर तथा राज्य में, मद्यपान की पूर्ण मनाही कर दी थी। मृत्यु के पश्चात् उन्हें मोक्ष प्राप्त हुआ था।
बलदेव—ये वसुदेव की पत्नी रोहिणी के गर्भ से प्रकट हुए, अलौकिक पुत्र थे। इन्हें रोहिणी नन्दन अर्थात् रोहिणी के प्रिय पुत्र भी कहा जाता है। जब वसुदेव ने कंस से पारस्परिक समझौता करके कारावास स्वीकार कर लिया था, तब बलराम को रोहिणी समेत नन्द महाराज को सौंप दिया गया था। अतएव नन्द महाराज बलदेव तथा भगवान् कृष्ण दोनों के पालक पिता थे। सौतेले भाई होते हुए भी कृष्ण तथा बलराम बचपन से ही निरन्तर एकसाथ ही रहते थे। वे भगवान् कृष्ण के स्वांश हैं, अतएव वे कृष्ण के ही समान उत्तम तथा शक्तिमान हैं। वे विष्णु-तत्त्व (ईश्वर तत्त्व) की श्रेणी में हैं। वे कृष्ण के साथ द्रौपदी के स्वयंवर में गये थे। जब श्रीकृष्ण की सुनियोजित योजना से अर्जुन द्वारा सुभद्रा का हरण किया गया था, तब बलदेव अर्जुन पर अत्यधिक क्रुद्ध हुए थे और तत्काल उनका वध कर देना चाहते थे। लेकिन श्रीकृष्ण अपने प्रिय मित्र के लिए, बलदेव के चरणों पर गिर पड़े और उन्हें इतना क्रुद्ध न होने की विनती की। तब कहीं बलदेव तुष्ट हुए थे। इसी प्रकार वे एक बार कौरवों से भी क्रुद्ध हुए थे और वे उनकी सारी नगरी को यमुना नदी में फेंक देना चाहते थे। लेकिन कौरवों ने उनके चरणकमलों में शरण लेकर उन्हें प्रसन्न किया था। वास्तव में वे कृष्ण के जन्म के पूर्व देवकी के सातवें पुत्र थे, लेकिन कंस के क्रोध से बचने के लिए वे रोहिणी के गर्भ में स्थानान्तरित कर दिये गये थे। अतएव उनका अन्य नाम संकर्षण है, जो श्रीबलदेव के स्वांश भी हैं। चूँकि वे कृष्ण के ही समान शक्तिशाली हैं और भक्तों को आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करनेवाले हैं, अतएव वे बलदेव कहलाते हैं। वेदों में भी आदेश है कि बिना बलदेव की कृपा प्राप्त किये कोई भी परमेश्वर को नहीं जान सकता। बल का अर्थ भौतिक शक्ति नहीं, अपितु आध्यात्मिक शक्ति है। कतिपय अल्पज्ञ लोग बल को शारीरिक बल मानते हैं, लेकिन शारीरिक बल से किसी को आत्म-साक्षात्कार नहीं हो सकता। शारीरिक शक्ति का अन्त भौतिक शरीर के ही साथ हो जाता है, लेकिन आध्यात्मिक बल जन्म-जन्मांतर तक आत्मा के साथ-साथ जाता है, अतएव बलदेव द्वारा प्रदत्त किया गया बल कभी व्यर्थ नहीं जाता। यह बल शाश्वत होता है और इस प्रकार बलदेव समस्त भक्तों के आदि गुरु हैं।
श्री बलदेव सांदीपनि मुनि के शिष्य के रूप में श्रीकृष्ण के सहपाठी भी थे। उन्होंने बचपन में कृष्ण के साथ मिलकर अनेक असुरों का संहार किया था और विशेष रूप से उन्होंने तालवन में धेनुकासुर का वध किया था। कुरुक्षेत्र के युद्ध में वे तटस्थ बने रहे और भरसक प्रयत्न करते रहे कि युद्ध न हो। वे दुर्योधन के पक्षपाती थे, तो भी वे तटस्थ बने रहे। जब दुर्योधन तथा भीमसेन के बीच गदायुद्ध हुआ, तो भी वे वहाँ उपस्थित थे। जब भीमसेन ने दुर्योधन की जाँघ पर या कमर के नीचे प्रहार किया, तो वे उससे क्रोधित हुए थे और इस अनुचित कार्य का बदला लेना चाहते थे। लेकिन श्रीकृष्ण ने भीम को उनके क्रोध से बचाया। लेकिन भीमसेन से अरुचि उत्पन्न होने से, उन्होंने तुरन्त उस स्थान को छोड़ दिया और उनके जाते ही दुर्योधन मृत्यु को प्राप्त होने के लिए भूमि पर गिर पड़ा। उन्होंने अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु का अंतिम संस्कार किया, क्योंकि वे उसके मामा थे। उस समय सारे पाण्डव इतने शोक-सन्तप्त थे ्कि यह संस्कार करना उनके वश की बात न थी। अन्तिम अवस्था में उन्होंने अपने मुख से एक महान् श्वेत सर्प को उत्पन्न करके इस जगत् से प्रयाण किया और इस प्रकार वे शेषनाग द्वारा सर्प के रूप में ले जाये गये।
प्रद्युम्न—ये कामदेव के अथवा अन्यों के अनुसार सनत्कुमार के अवतार थे और परमेश्वर श्रीकृष्ण तथा द्वारका की महारानी लक्ष्मीदेवी, श्रीमती रुक्मिणी, के पुत्र के रूप में प्रकट हुए थे। वे उनमें से एक थे, जो अर्जुन को सुभद्रा से ब्याह के बाद बधाई देने गये थे। वे उन प्रधान सेनापतियों में से एक थे, जिन्होंने शाल्व से युद्ध किया था और युद्धभूमि में उससे लड़ते-लड़ते वे मूर्छित हो गये थे। उनका सारथी उन्हें युद्धभूमि से शिविर में ले आया था, किन्तु उन्होंने इस कार्य के लिए उसे कोसा था तथा स्वयं अत्यन्त खिन्न हुए थे। किन्तु उन्होंने पुन: शाल्व से युद्ध किया था और विजयी हुए थे। उन्होंने नारदजी से विभिन्न देवताओं के विषय में सुना। वे भगवान् श्रीकृष्ण के चार पूर्णांशों में तीसरे हैं। उन्होंने अपने पिता कृष्ण से ब्राह्मणों की महिमा के विषय में जिज्ञासा की थी। यदुवंशियों के बन्धुघाती युद्ध में, वे वृष्णियों के राजा भोज के हाथों मारे गये। मृत्यु के बाद उन्हें अपने मूल पद पर स्थापित किया गया।
चारुदेष्ण—श्रीकृष्ण तथा रुक्मिणी देवी के एक और पुत्र। ये भी द्रौपदी-स्वयंवर में उपस्थित थे। ये अपने भाइयों तथा पिता की भाँति महान् योद्धा थे। इन्होंने विविनिधक से युद्ध करके उसे मार डाला। साम्ब—ये यदुकुल के महान् शूरवीरों में से एक थे। ये श्रीकृष्ण की पत्नी जाम्बवती से उत्पन्न पुत्र थे। इन्होंने अर्जुन से धनुर्विद्या का युद्ध कौशल सीखा था और महाराज युधिष्ठिर की संसद के सदस्य बने थे। ये महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में उपस्थित थे। जब प्रभास-यज्ञ में सारे वृष्णि एकत्र थे, तो सात्यकि ने भगवान् बलदेव के समक्ष इनके महिमाशाली गुणों का वर्णन किया था। ये युधिष्ठिर द्वारा सम्पन्न करवाये गये अश्वमेघ यज्ञ के समय अपने पिता श्रीकृष्ण के साथ उपस्थित थे। इनके भाइयों ने इन्हें गर्भवती स्त्री के रूप में कुछ ऋषियों के समक्ष प्रस्तुत किया था और इन्होंने हँसी-हँसी में उनसे पूछा था कि मेरे गर्भ से क्या उत्पन्न होगा? इस पर ऋषियों ने उत्तर दिया था कि तुम्हारे गर्भ से लोह पिण्ड (मूसल) उत्पन्न होगा, जिससे यदुकुल में बन्धु-घाती युद्ध होगा। दूसरे ही दिन प्रात:काल, साम्ब के गर्भ से एक बृहद् लोह-पिण्ड (मूसल) उत्पन्न हुआ, जिसे उग्रसेन को उचित कार्यवाही के लिए सौंप दिया गया। बाद में सचमुच ही पूर्वघोषित बन्धुघाती युद्ध हुआ, जिसमें साम्ब मारे गये।
इस तरह भगवान् श्रीकृष्ण के ये पुत्र अपना-अपना स्थान त्याग कर तथा विश्राम करना, बैठना, खाना जैसे कृत्यों से विरत होकर अपने पूज्य पिता की ओर दौड़ पड़े।