प्रह्वाभिवादनाश्लेषकरस्पर्शस्मितेक्षणै: ।
आश्वास्य चाश्वपाकेभ्यो वरैश्चाभिमतैर्विभु: ॥ २२ ॥
शब्दार्थ
प्रह्वा—अपना सिर झुकाकर; अभिवादन—शब्दों से अभिवादन; आश्लेष—आलिंगन; कर-स्पर्श—हाथ मिलाना; स्मित- ईक्षणै:—बाँकी हँसी से; आश्वास्य—प्रोत्साहन द्वारा; च—तथा; आश्वपाकेभ्य:—कुत्ता खानेवाली अधम जाति तक; वरै:— आशीर्वादों से; च—तथा; अभिमतै:—जिसकी जैसी इच्छा हो; विभु:—सर्वशक्तिमान ने ।.
अनुवाद
सर्वशक्तिमान भगवान् ने वहाँ पर समुपस्थित लोगों को, यहाँ तक कि नीच से नीच जाति वाले को, अपना मस्तक झुकाकर, बधाई देकर, आलिंगन करके, हाथ मिलाकर, देखकर तथा हँसकर, आश्वासन देकर तथा वरदान देकर उनका अभिवादन किया।
तात्पर्य
भगवान् श्रीकृष्ण का स्वागत करने के लिए वहाँ सभी प्रकार के लोग थे—पिता वसुदेव, पितामह उग्रसेन तथा गुरु गर्गमुनि से लेकर वेश्याएँ तथा कुत्ते तक खाने के आदी चण्डाल तक थे। भगवान् ने इन सबों से उनके पद तथा प्रतिष्ठा के अनुसार उनका अभिवादन किया। शुद्ध जीवों के रूप में, सारे लोग भगवान् के भिन्नांश हैं और इस प्रकार अपने सनातन सम्बन्ध के कारण कोई उनसे पराया नहीं है। ऐसे शुद्ध जीव, भौतिक गुणों के संदूषण के अनुसार भिन्न-भिन्न वर्गों में श्रेणीबद्ध किये जाते हैं, लेकिन इन भौतिक श्रेणीयों के बावजूद भगवान् अपने समस्त भिन्नांशों पर समान रूप से वत्सल रहते हैं। वे इन भौतिकता में डूबे जीवों को अपने धाम वापस लौटने के लिए स्मरण दिलाने के लिए ही अवतरित होते हैं और जो बुद्धिमान लोग हैं, वे भगवान् द्वारा सभी जीवों को दिए गए इस अवसर का लाभ उठाते हैं। भगवान् किसी को अपने धाम के लिए अयोग्य नहीं ठहराते, यह तो जीव पर निर्भर करता है कि वह इसे स्वीकार करे या नहीं।
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