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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 11: भगवान् श्रीकृष्ण का द्वारका में प्रवेश  »  श्लोक 23
 
 
श्लोक  1.11.23 
स्वयं च गुरुभिर्विप्रै: सदारै: स्थविरैरपि ।
आशीर्भिर्युज्यमानोऽन्यैर्वन्दिभिश्चाविशत्पुरम् ॥ २३ ॥
 
शब्दार्थ
स्वयम्—अपने आप; —भी; गुरुभि:—वयस्क स्वजनों द्वारा; विप्रै:—ब्राह्मणों के द्वारा; सदारै:—अपनी-अपनी पत्नियों सहित; स्थविरै:—अशक्तों (वृद्धों) के द्वारा; अपि—भी; आशीर्भि:—आशीर्वाद से; युज्यमान:—प्रशंसित होकर; अन्यै:— अन्यों द्वारा; वन्दिभि:—प्रशंसकों द्वारा; —तथा; अविशत्—प्रवेश किया; पुरम्—नगर में ।.
 
अनुवाद
 
 तब भगवान् ने ज्येष्ठ-वरेष्ठ सम्बन्धियों तथा अपनी-अपनी पत्नियों के साथ आए अशक्त ब्राह्मणों के साथ नगर में प्रवेश किया। वे सब आशीर्वाद दे रहे थे और भगवान् के यशों का गान कर रहे थे। दूसरे लोगों ने भी भगवान् की महिमा की प्रशंसा की।
 
तात्पर्य
 समाज में ब्राह्मण कभी भी भावी निवृत्त जीवन के लिए धन संग्रह करने के प्रति ध्यान नहीं देते थे। जब वे वृद्ध एवं अशक्त हो जाते थे, तब वे अपनी पत्नियों सहित राजदरबार पहुँचते थे और केवल राजाओं के महिमायुक्त कार्यों की प्रशंसा करने से उन्हें जीवन की सारी आवश्यकताएँ प्रदान की जाती थीं। ऐसे ब्राह्मण राजा के चाटुकार नहीं होते थे, अपितु इससे राजाओं को वास्तव में यश मिलता था और इन ब्राह्मणों के सम्मानयुक्त कार्यों से वे राजा पुण्यकर्मों को सच्चे दिल से करने के लिए और भी प्रोत्साहित होते थे। भगवान् श्रीकृष्ण समस्त यशों के पात्र हैं और स्तुति करनेवाले ब्राह्मण तथा अन्य लोग भगवान् की महिमा का गान करने के कारण स्वयं धन्य हो गए।
 
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>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥