जब भगवान् राजमार्ग से होकर जा रहे थे, तो द्वारका के प्रतिष्ठित परिवारों की सभी स्त्रियाँ भगवान् का दर्शन करने के लिए अपने-अपने महलों की अटारियों पर चढ़ गईं। इसे वे एक महान् उत्सव समझ रही थीं।
तात्पर्य
भगवान् का दर्शन करना, निस्सन्देह, अपने आप में एक महोत्सव है जैसाकि द्वारका नगर की स्त्रियों ने माना। इसे आज भी भारत की श्रद्धालु स्त्रियाँ इसी तरह मानती हैं। विशेषकर, झूलना तथा जन्माष्टमी-उत्सवों के अवसरों पर, भगवान् के मन्दिर में, जहाँ उनके शाश्वत दिव्य रूप की पूजा की जाती है, स्त्रियाँ सर्वाधिक संख्या में जुटती हैं। मन्दिर में स्थापित भगवान् का दिव्य स्वरूप, साक्षात् भगवान् से भिन्न नहीं होता। भगवान् का ऐसा स्वरूप अर्चा-विग्रह या अर्चा-अवतार कहलाता है और इस भौतिक जगत के असंख्य भक्तों की भक्ति को सरल बनाने के लिए भगवान् की अन्तरंगा शक्ति द्वारा इसे विस्तार दिया जाता है। भौतिक इन्द्रियाँ भगवान् की आध्यात्मिक प्रकृति की अनुभूति नहीं कर पातीं। अतएव भगवान् अर्चा-विग्रह रूप का स्वीकार करते हैं, जो बाह्य रूप से मिट्टी, काठ तथा पत्थर का बना होता है, लेकिन इसमें कोई भौतिक कल्मष नहीं होता। भगवान् कैवल्य (एकाकी) होने के कारण उनमें कोई भौतिक पदार्थ नहीं रहता। वे अद्वितीय हैं, अतएव वे भौतिक धारणा से कल्मषग्रस्त हुए बिना किसी भी रूप में प्रकट हो सकते हैं। अतएव भगवान् के मन्दिर के सारे उत्सव, जिस रूप में वे मनाये जाते हैं उन उत्सवों के समान होते हैं, जो लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व द्वारका में भगवान् के वास के दिनों में मनाये जाते थे। प्रामाणिक आचार्य, जो ईश-तत्त्व के विज्ञान से भलीभाँति परिचित होते हैं, ऐसे भगवत्-मन्दिरों की स्थापना विधि-विधानों के अन्तर्गत सामान्य लोगों की सुविधा के लिए करते हैं, लेकिन जो लोग अल्पज्ञ हैं और इस विज्ञान से परिचित नहीं होते, वे इस महान् प्रयास को मूर्ति-पूजा मानने की गलती करते हैं और ऐसी बातों में अपनी टाँग अड़ाते हैं, जिन तक उनकी पहुँच नहीं होती। अतएव वे स्त्रियाँ या पुरुष, जो भगवान् के दिव्य स्वरूप की झाँकी प्राप्त करने के लिए भगवान् के मन्दिरों में उत्सव रचाते हैं, भगवान् के दिव्य रूप में विश्वास न करनेवालों से हजार गुना धन्य हैं।
इस श्लोक से प्रतीत होता है कि द्वारका के निवासी बड़े-बड़े महलों के मालिक थे। यह नगर की समृद्धि का द्योतक है। स्त्रियाँ जुलूस को देखने तथा भगवान् की झाँकी प्राप्त करने के उद्देश्य से अटारियों पर चढ़ गईं। स्त्रियाँ मार्गों की भीड़ के बीच में नहीं गईं और इस तरह उनकी प्रतिष्ठा भलिभाँतिबनी रही। वहाँ पर मनुष्य के साथ बनावटी समानता नहीं थी। स्त्री को पुरुष से पृथक् रखकर, उसकी प्रतिष्ठा की अधिक अच्छे ढंग से रक्षा की जा सकती है। स्त्री-पुरुषों को बे-रोक-टोक मिलना-जुलना नहीं चाहिए।
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