श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 11: भगवान् श्रीकृष्ण का द्वारका में प्रवेश  »  श्लोक 26
 
 
श्लोक  1.11.26 
श्रियो निवासो यस्योर: पानपात्रं मुखं द‍ृशाम् ।
बाहवो लोकपालानां सारङ्गाणां पदाम्बुजम् ॥ २६ ॥
 
शब्दार्थ
श्रिय:—लक्ष्मी का; निवास:—निवासस्थान; यस्य—जिसका; उर:—वक्षस्थल; पान-पात्रम्—जल का घड़ा; मुखम्—मुँह; दृशाम्—आँखों का; बाहव:—बांहें; लोक-पालानाम्—प्रशासक देवताओं की; सारङ्गाणाम्—भक्तों का, जो किसी वस्तु के विषय में कुछ कहते या गाते हैं; पद-अम्बुजम्—चरणकमल ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् का वक्षस्थल लक्ष्मी देवी का निवासस्थल है। उनका चाँद जैसा मुखड़ा उन नेत्रों के लिए जलपात्र के समान है, जो सुन्दर वस्तुओं के लिए सदैव लालायित रहते हैं। उनकी भुजाएँ प्रशासक देवताओं के लिए आश्रयस्थल हैं और उनके चरणकमल उन शुद्ध भक्तों की शरणस्थली हैं, जो भगवान् के अतिरिक्त न तो कुछ कहते हैं, न गाते हैं।
 
तात्पर्य
 मनुष्यों की अनेक कोटियाँ हैं और वे सभी भिन्न-भिन्न वस्तुओं में भिन्न-भिन्न प्रकार का भोग खोजती रहती हैं। कुछ ऐसे व्यक्ति हैं, जो लक्ष्मीदेवी की कृपा के इच्छुक रहते हैं। उन्हें वैदिक साहित्य यह बताता है कि चिन्तामणिधाम* में भगवान् हजारों-हजार लक्ष्मियों के द्वारा पूरे भक्तिभाव सहित सेवित होते रहते हैं। यह धाम भगवान् का दिव्य घर है, जहाँ सारे वृक्ष कल्पतरु हैं और प्रासाद पारसमणि के बने हुए हैं। वहाँ पर भगवान् अपने स्वाभाविक पेशे के तौर पर सुरभि गायों को चराने में लगे रहते हैं। यदि हम भगवान् के शारीरिक सौन्दर्य से आकृष्ट हों, तो ये लक्ष्मियाँ स्वत: दिखाई पड़ती हैं। निर्विशेषवादी इन लक्ष्मियों को नहीं देख पाते, क्योंकि वे शुष्क चिन्तक होते हैं। लेकिन जो कलाकार हैं तथा सुन्दर सृष्टि द्वारा अभिभूत रहते हैं, उन्हें चाहिए कि पूर्ण तुष्टि के लिए भगवान् का सुन्दर मुख देखें। भगवान् का मुख समस्त सुन्दरता का आगार है। जिसे वे सुन्दर प्रकृति कहकर पुकारते हैं, वह तो उनकी मन्द मुस्कान है और जिसे वे पक्षियों का कलरव कहते हैं, वे भगवान् की मर्मर ध्वनियाँ हैं। ब्रह्माण्ड की व्यवस्था के लिए प्रशासनाधिकारी देवता होते हैं और राज्य-स्तर पर भी छोटे-छोटे देवता होते हैं। वे सदैव अन्य प्रतियोगियों से भयभीत रहते हैं, किन्तु यदि वे भगवान् की भुजाओं का आश्रय लें, तो भगवान् शत्रुओं के आक्रमण से सदैव उनकी रक्षा कर सकते हैं। प्रशासनिक सेवा में लगा हुआ भगवान् का श्रद्धालु दास आदर्श प्रशासनाधिकारी होता है और वह सामान्य-जन के हितों की रक्षा भलीभाँति कर सकता है। अन्य तथाकथित प्रशासक राजतंत्र के प्रतीक होते हैं, जिनके द्वारा शासित लोगों को दु:सह दुख सहने पड़ते हैं। प्रशासकगण भगवान् की भुजाओं का संरक्षण प्राप्त करके सुरक्षित रह सकते हैं। परमेश्वर सभी वस्तुओं के सार हैं, अतएव वे सारम् कहलाते हैं और जो उनका गुणगान करते हैं, वे सांरग या शुद्ध भक्त कहलाते हैं। शुद्ध भक्त तो भगवान् के चरणकमलों के लिए लालायित रहते हैं। कमल में एक प्रकार का मधु होता है, जिसका दिव्य आस्वाद भक्तगण करते हैं। वे उन मधुमखियों के तुल्य हैं, जो मधु के लिए सदा दौड़ती रहती हैं। गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के महान् भक्त आचार्य श्रील रूप गोस्वामी ने अपनी तुलना मधुमक्खी से करते हुए इस कमल-मधु के विषय में एक गीत लिखा है : “हे मेरे भगवान् कृष्ण! मैं आपकी प्रार्थना करता हूँ। मेरा मन मधुमक्खी के समान है, जो थोड़ा कुछ मधु पाने के लिए लालायित है। अतएव कृपा करके मेरी मनरूपी मधुमक्खी को अपने चरणकमलों में स्थान प्रदान करें, जो समस्त दिव्य मधु के आगार हैं। मैं जानता हूँ कि ब्रह्मा जैसे बड़े-बड़े देवता, वर्षों तक लगातार गहन ध्यान में तल्लीन रहकर भी, आपके चरणकमलों के नाखूनों की द्युति को भी देख नहीं पाते। फिर भी, हे अच्युत! मेरी ऐसी अभिलाषा है, क्योंकि आप शरणागतों पर अत्यन्त दयालु रहते हैं। हे माधव! मैं यह भी जानता हूँ कि मुझ में आपके चरणों की सेवा के प्रति वास्तविक अनुरक्ति नहीं है, लेकिन आप अकल्पनीय शक्तिशाली हैं, अतएव आप असम्भव से असम्भव कार्य कर सकते हैं। आपके चरणकमलों के समक्ष स्वर्ग का अमृत भी तुच्छ है, अतएव मैं उनके प्रति अत्यधिक अनुरक्त हूँ। अतएव हे परम नित्य! मेरे मन को आपके चरणकमलों में स्थिर होने दे, जिससे मैं आपकी दिव्य सेवा का आस्वाद निरन्तर लेता रहूँ।” भक्तगण भगवान् के चरणकमलों को प्राप्त करके तुष्ट रहते हैं और उन्हें भगवान् के सर्व-सुन्दर मुख को देखने अथवा उनकी बलिष्ठ भुजाओं के संरक्षण की कोई अभिलाषा नहीं रह जाती। वे स्वभाव से विनम्र होते हैं और भगवान् का ऐसे विनम्र भक्तों के प्रति सदैव झुकाव रहता है।

* चिन्तामणि-प्रकर-सद्मसु कल्पवृक्ष लक्षावृक्षतेषु सुरभिरभिपालयन्तम्।

लक्ष्मी-सहस्र-शत-सम्भ्रम सेव्यमानम् गोविन्दामादिपुरुषं तमहं भजामि ॥

(ब्रह्मसंहिता, ५.२९)

 
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