तम्—उस (भगवान्) को; आत्म-जै:—पुत्रों द्वारा; दृष्टिभि:—दृष्टि द्वारा; अन्तर-आत्मना—अन्तरात्मा से; दुरन्त-भावा:—दुर्लंघ्य उत्कंठा; परिरेभिरे—आलिंगन किया; पतिम्—पति को; निरुद्धम्—अवरुद्ध; अपि—होते हुए; आस्रवत्—आँसू; अम्बु—जल की बूँदों के समान; नेत्रयो:—आँखों से; विलज्जतीनाम्—लज्जा अनुभव करनेवाली; भृगु-वर्य—हे भृगुओं में श्रेष्ठ; वैक्लवात्— अनजाने ।.
अनुवाद
रानियों की दुर्लंघ्य उत्कण्ठा इतनी तीव्र थी कि लजाई होने के कारण उन्होंने सर्वप्रथम अपने अन्तरतम से भगवान् का आलिंगन किया, फिर उन्होंने दृष्टि से उनका आलिंगन किया और तब अपने पुत्रों को उनका आलिंगन करने के लिए भेजा (जो खुद ही आलिंगन करने जैसा है)। लेकिन हे भृगुश्रेष्ठ, यद्यपि वे भावनाओं को रोकने का प्रयास कर रही थीं, किन्तु अनजाने उनके नेत्रों से अश्रु छलक आये।
तात्पर्य
यद्यपि स्त्रियोचित लज्जा के कारण अपने प्रिय पति भगवान् श्रीकृष्ण का आलिंगन करने में अनेक अवरोध थे, लेकिन उन्होंने भगवान् को देखकर, उन्हें अपने अन्तरतम में स्थापित करके तथा आलिंगन करने के लिए अपने पुत्र भेज करके, इसे पूरा कर लिया। लेकिन इस पर भी काम अधूरा ही रहा और अत्यन्त प्रयास करने पर भी उनकी आँखों से आँसू ढुलक आये। पुत्र को पिता का आलिंगन करने के लिए भेजना अप्रत्यक्ष रूप से पति का आलिंगन करने जैसा है, क्योंकि पुत्र माता के शरीर से ही विकसित होता है। पुत्र द्वारा आलिंगन पति-पत्नी द्वारा काम-भावना की दृष्टि से किये जानेवाले आलिंगन-जैसा नहीं होता, लेकिन यह आलिंगन वात्सल्य की दृष्टि से तृप्तिदायक होता है। युगल सम्बंधों में दृष्टि द्वारा आलिंगन अधिक प्रभावशाली होता है। अतएव श्रील जीव गोस्वामी के अनुसार, पति तथा पत्नी में इस प्रकार के भाव-विनिमय में कुछ भी गलत नहीं है।
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