एवम्—इस प्रकार; नृपाणाम्—राजाओं या प्रशासकों के; क्षिति-भार—पृथ्वी का बोझ; जन्मनाम्—इस प्रकार से उत्पन्न; अक्षौहिणीभि:—घोड़ों, हाथियों, रथों तथा पैदल सेना शक्ति के द्वारा शक्ति-सम्पन्न; परिवृत्त—ऐसे परिवेश से गर्वित; तेजसाम्—पराक्रम; विधाय—उत्पन्न करके; वैरम्—शत्रुता; श्वसन:—बाँसों के पौधों तथा वायु के घर्षण से; यथा—जिस प्रकार; अनलम्—अग्नि; मिथ:—एक दूसरे के साथ; वधेन—मारने से; उपरत:—छूटकर; निरायुध:—युद्ध में किसी का पक्ष न करने से ।.
अनुवाद
पृथ्वी पर भार-स्वरूप राजाओं को मारने के बाद, भगवान् को राहत हुई। वे अपनी सैन्य शक्ति, अपने घोड़ों, हाथियों, रथों, पैदल सेना के बल पर गर्वित थे। युद्ध में भगवान् किसी दल में सम्मिलित नहीं हुए। उन्होंने बलशाली प्रशासकों में शत्रुता उत्पन्न की और वे आपस में लड़ गये। वे उस वायु के समान थे, जो बाँसों में घर्षण उत्पन्न करके आग लगा देती है।
तात्पर्य
जैसाकि ऊपर कहा जा चुका है, जीव उन वस्तुओं का वास्तविक भोक्ता नहीं होता, जो भगवान् की सृष्टि के रूप में प्रकट होती हैं। भगवान् अपनी सृष्टि में प्रकट की गई प्रत्येक वस्तु के असली स्वामी तथा भोक्ता हैं। दुर्भाग्यवश, माया के वश में आकर, जीव प्रकृति के गुणों के आदेशानुसार मिथ्या भोक्ता बन जाता है। ईश्वर बनने की ऐसी मिथ्या भावना से गर्वित होकर मोहित जीव अनेकानेक कार्यों के द्वारा अपनी भौतिक शक्ति बढ़ाता है और इस तरह पृथ्वी का बोझ बन जाता है और यहाँ तक कि पृथ्वी भलेमानस के लिए रहने योग्य नहीं रह जाती। यह अवस्था धर्मस्य ग्लानि अर्थात् मानव शक्ति का दुरुपयोग कहलाती है। जब इस प्रकार धर्म की ग्लानि प्रकट होने लगती है, तो धर्मात्मा लोग, धरती के लिए भार-स्वरूप भ्रष्ट प्रशासकों द्वारा उत्पन्न विषम परिस्थिति में व्यग्र हो उठते हैं और तब धर्मात्मा लोगों की रक्षा करने तथा संसार विभिन्न भागों के ऐसे प्रशासकों के भार को कम करने के लिए भगवान् अपनी अन्तरंगा शक्ति से अवतरित होते हैं। वे इन अवांछित प्रशासकों पर दया नहीं दिखाते, अपितु अपनी शक्ति से वे उनके बीच शत्रुता उत्पन्न कर देते हैं, ठीक उसी तरह जिस प्रकार वायु बाँसों की रगड़ से जंगल में अग्नि उत्पन्न कर देती है। यह अग्नि जंगल में स्वत: वायु के प्रकोप से उत्पन्न होती है। इसी प्रकार राजनेताओं के विभिन्न समुहों में शत्रुता का प्रादुर्भाव भगवान् की अदृश्य योजना से होता है। ये अवांछित प्रशासक झूठी शक्ति तथा सैन्य-बल से गर्वित होकर, आदर्शवादी संघर्षों के लिए परस्पर युद्ध करने लगते हैं और अपनी सारी शक्ति का क्षय कर लेते हैं। विश्व का इतिहास भगवान् की इस इच्छाशक्ति को दर्शाता है और यह तब तक चलती रहेगी, जब तक सारे जीव भगवान् की सेवा में अनुरक्त नहीं हो जाते। भगवद्गीता (७.१४) में यह तथ्य अत्यन्त विशद रूप से वर्णित है, जिसमें कहा गया है, “माया मेरी शक्ति है इसलिए आश्रित जीवों के लिए यह सम्भव नहीं है कि वे भौतिक गुणों की शक्ति का अतिक्रमण कर सकें। किन्तु जो लोग मेरी (भगवान् श्रीकृष्ण की) शरण ग्रहण करते हैं, वे इस भौतिक शक्ति विशाल सागर को पार कर सकते हैं।” इसका अर्थ यह हुआ कि सकाम कर्म द्वारा या चिन्तन या आदर्शवाद द्वारा शान्ति तथा सम्पन्नता नहीं लाई जा सकती। इसका एकमात्र उपाय है परमेश्वर की शरण ग्रहण करना और माया के मोह से मुक्त हो लेना।
दुर्भाग्यवश जो लोग विध्वंसक कार्य में लगे हैं, वे भगवान् की शरण ग्रहण करने में अक्षम हैं। वे अव्वल दर्जे के मूर्ख हैं; वे मनुष्य योनि के निम्नतम् स्तर पर गिरे हुए हैं; उनका सारा ज्ञान हर लिया गया होता है, यद्यपि बाहरी तौर पर शैक्षिक दृष्टि से वे पढ़े-लिखे लगते हैं। वे सारे आसुरी वृत्ति के होते हैं और सदैव ही भगवान् की परम शक्ति को ललकारते रहते हैं। जो अत्यधिक भौतिकतावादी हैं और भौतिक शक्ति एवं सत्ता के लिए लालायित रहते हैं, वे निस्सन्देह पहले दर्जे के मूर्ख हैं, क्योंकि उन्हें जीवंत शक्ति का कोई ज्ञान नहीं होता। वे सर्वोपरि अध्यात्म ज्ञान से अनजान होने के कारण भौतिक विज्ञान में मस्त रहते हैं, जिसका समापन शरीर के अन्त के साथ हो जाता है। वे निपट अधम मनुष्य होते हैं, क्योंकि मनुष्य जीवन तो विशेष रूप से भगवान् के साथ विस्मृत सम्बन्ध को पुन:स्थापित करने के निमित्त मिला है, किन्तु वे भौतिक कार्यकलापों में लगे रहने के कारण इस अवसर को खो देते हैं। उनकी बुद्धि मारी जाती है, क्योंकि दीर्घकालीन तर्क वितर्क के बाद भी वे उन भगवान् को नहीं जान पाते, जो प्रत्येक वस्तु के सार-सर्वस्व हैं। वे सारे के सारे आसुरी सिद्धान्त वाले होते हैं और वे उसी तरह अपने किये कर्मों का फल भोगते हैं, जिस तरह कि रावण, हिरण्यकशिपु, कंस तथा अन्य भौतिकतावादी शूरवीरों ने भोगा।
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