स एष नरलोकेऽस्मिन्नवतीर्ण: स्वमायया ।
रेमे स्त्रीरत्नकूटस्थो भगवान् प्राकृतो यथा ॥ ३५ ॥
शब्दार्थ
स:—वे (पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्); एष:—ये सब; नर-लोके—इस मनुष्य-लोक में; अस्मिन्—इस; अवतीर्ण:—अवतार लेकर; स्व—निजी, अन्त:; मायया—अहैतुकी कृपा से; रेमे—भोग किया; स्त्री-रत्न—वह स्त्री, जो भगवान् की पत्नी बनने के लिए उपुयक्त है; कूटस्थ:—मध्य में; भगवान्—भगवान्; प्राकृत:—संसारी; यथा—जिस प्रकार ।.
अनुवाद
पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण अपनी अहैतुकी कृपा से अपनी अन्तरंगा शक्ति द्वारा इस लोक में प्रकट हुए और सुयोग्य स्त्रियों के साथ इस तरह भोग किया, मानो वे संसारी कार्यों में लगे हुए हों।
तात्पर्य
भगवान् ने विवाह किया और गृहस्थ की भाँति रहे। यह निश्चय ही संसारी कार्य जैसा है, किन्तु जब हम यह जान लेते हैं कि उन्होंने १६,१०८ पत्नियों से विवाह किया और वे उन सबों के साथ पृथक्-पृथक् महलों में रहते थे, तो यह निश्चित रूप से सांसारिकता नहीं रह जाती। अतएव भगवान् का अपनी सुयोग्य पत्नियों के साथ गृहस्थ के रूप में रहना कभी भी संसारी नहीं हैं और उन सबके साथ उनका व्यवहार कोई संसारी यौन-सम्बन्ध नहीं समझा जाना चाहिए। जो स्त्रियाँ उनकी पत्नी बनी थीं, वे भी सामान्य स्त्रियाँ नहीं थीं, क्योंकि भगवान् को पति-रूप में प्राप्त करना कोटि- कोटि जन्मों की तपस्या का परिणाम ही हो सकता है। जब भगवान् विभिन्न लोकों में या इस मनुष्यलोक में प्रकट होते हैं, तो वे बद्धजीवों को दिव्य लोक में अपना नित्य दास, मित्र, जननी, जनक तथा प्रियतम बनाने हेतु आकर्षित करने के लिए ही अपनी दिव्य लीलाओं का प्रदर्शन करते हैं, जहाँ भगवान् नित्य सेवा-विनिमय का प्रतिदान करते हैं। इस भौतिक जगत में यह सेवा विकृत रूप में दिखती है और असमय ही छिन्न हो जाती है, जिससे बहुत ही कटु अनुभव होता है। मोहग्रस्त जीव, प्रकृति के द्वारा बद्ध होकर, अज्ञान के कारण समझ नहीं पाता कि हमारे यहाँ के सारे संसारी सम्बन्ध क्षणिक हैं और उन्माद से भरे हैं। ऐसे सम्बन्ध हमें निरन्तर सुखी नहीं रख सकते, किन्तु यदि यही सम्बन्ध भगवान् के साथ स्थापित किये जायें, तो हम इस भौतिक शरीर को त्यागने पर वैकुण्ठ चले जाते हैं और उनके साथ इच्छित शाश्वत सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं। अतएव जिन स्त्रियों के बीच में वे पति-रूप में रह रहे थे, वे इस भौतिक जगत् की स्त्रीयाँ न होकर उनकी दिव्य पत्नियाँ थीं और वे भक्तिमय सेवा की पूर्णता के द्वारा दिव्य पद प्राप्त कर चुकी थीं। यही उनकी योग्यता थी। भगवान् परब्रह्म अर्थात् पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर हैं। बद्धजीव सर्वत्र ही शाश्वत सुख की खोज करते रहते हैं—न केवल इस धरा में, अपितु ब्रह्माण्ड के अन्य लोकों में भी—क्योंकि वैधानिक रूप से आध्यात्मिक स्फुलिंग होने के कारण, जीव ईश्वर की सृष्टि के कोने-कोने में विचरण कर सकता है। लेकिन भौतिक गुणों के द्वारा बद्ध होने से वह अन्तरिक्षयानों द्वारा आकाश में विचरण करना चाहता है और अपने गन्तव्य तक पहुँच पाने में असफल रहता है। गुरुत्वाकर्षण का नियम उसके लिए कैदी की जंजीरों के समान बाँधनेवाला है। वह अन्य विधियों से कहीं भी पहुँच सकता है, लेकिन चाहे वह सर्वोच्च लोक तक क्यों न पहुँच जाय, किन्तु उसे वह शाश्वत सुख नहीं मिल सकता, जिसकी खोज वह जन्म- जन्मांतर से करता रहता है। किन्तु जब वह होश सँभालता है, तो ब्रह्म-सुख की खोज यह जानते हुए करता है कि वह जिस असीम सुख की खोज कर रहा है, वह इस भौतिक जगत में कभी भी प्राप्त होनेवाला नहीं है। अतएव, सर्वोपरि व्यक्ति, परब्रह्म कभी भौतिक जगत में इस सुख की खोज नहीं करते। न ही उनकी सुख-सामग्री इस भौतिक जगत में मिल सकती है। वे निराकार नहीं हैं। चूँकि वे नायक हैं और असंख्य जीवों में सर्वोपरि व्यक्ति हैं, अतएव वे निराकार नहीं हो सकते। वे हमारी ही तरह हैं और उनमें समस्त व्यक्तिगत जीवों की सी प्रवृत्ति पूर्ण रूप में पायी जाती है। वे हमारी ही तरह विवाह करते हैं, किन्तु उनका विवाह न तो संसारी है, न हमारा बद्ध अवस्था के अनुभव से सीमित है। अतएव उनकी पत्नियाँ संसारी लगती तो हैं, किन्तु वास्तव में वे सब दिव्य मुक्तात्माएँ हैं, जो अन्तरंगा शक्ति की पूर्ण अभिव्यक्तियाँ हैं।
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