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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 11: भगवान् श्रीकृष्ण का द्वारका में प्रवेश  »  श्लोक 36
 
 
श्लोक  1.11.36 
उद्दामभावपिशुनामलवल्गुहास-
व्रीडावलोकनिहतो मदनोऽपि यासाम् ।
सम्मुह्य चापमजहात्प्रमदोत्तमास्ता
यस्येन्द्रियं विमथितुं कुहकैर्न शेकु: ॥ ३६ ॥
 
शब्दार्थ
उद्दाम—अत्यन्त गम्भीर; भाव—भाव; पिशुन—उत्तेजक; अमल—निष्कलंक; वल्गु-हास—सुन्दर मुसकान; व्रीडा—आँख की कोर; अवलोक—देखना, चितवन; निहत:—जीता गया; मदन:—कामदेव (या अमदन—सहिष्णु शिव); अपि—भी; यासाम्—जिसका; सम्मुह्य—से विजित होकर; चापम्—धनुष; अजहात्—त्याग दिया; प्रमद— मादक बनानेवाली स्त्री; उत्तमा:—उच्च कोटि की; ता—वे सब; यस्य—जिसकी; इन्द्रियम्—इन्द्रियों को; विमथितुम्—विचलित करने के लिए; कुहकै:—हावभाव द्वारा; —कभी नहीं; शेकु:—समर्थ ।.
 
अनुवाद
 
 यद्यपि रानियों की मृदु मुस्कानें तथा बाँकी चितवनें अत्यन्त विमल तथा उत्तेजक थीं, जिससे साक्षात् कामदेव भी मोहित होकर अपना धनुष त्यागने के लिए बाध्य हो सकते थे, यहाँ तक कि अत्यन्त सहिष्णु शिवजी भी उनके शिकार हो सकते थे, तो भी, वे अपने समस्त हाव-भाव तथा आकर्षण से भगवान् की इन्द्रियों को विचलित नहीं कर सकीं।
 
तात्पर्य
 मोक्ष का पथ या भगवद्धाम वापस जाने का पथ सदैव स्त्री-संसर्ग का निषेध करता है और सारा सनातन धर्म या वर्णाश्रम-धर्म की सारी व्यवस्था स्त्री की संगति के लिए मना करते हैं या प्रतिबन्धित करते हैं। तो फिर जो व्यक्ति सोलह हजार से अधिक पत्नियों से अनुरक्त हो, उसे भगवान् कैसे मान लिया जाय? यह प्रश्न उन जिज्ञासुओं द्वारा उठाया जा सकता है, जो वास्तव में परमेश्वर की दिव्य प्रकृति को जानने के लिए उत्सुक हैं। ऐसे प्रश्नों का उत्तर देने के लिए ही नैमिषारण्य में मुनियों ने इस श्लोक में तथा अगले श्लोकों में भगवान् के दिव्य स्वभाव के विषय में विचार-विमर्श किया है। यहाँ यह स्पष्ट है कि स्त्रियों के आकर्षक हाव-भाव, जो कामदेव को या परम सहिष्णु पुरुष शिवजी को भी डिगा सकते हैं, वे भगवान् की इन्द्रियों को नहीं जीत सके। कामदेव का एकमात्र कार्य है संसारी काम-वासना को उद्दीपित करना। सारा ब्रह्माण्ड कामदेव के बाण से विचलित होकर गति कर रहा है। विश्व के सारे कार्य-कलाप, स्त्री तथा पुरुष के केन्द्रीय आकर्षण के कारण गतिशील हैं। पुरुष अपनी रुचि की सहचरी खोजता रहता है और स्त्री उपयुक्त पुरुष की तलाश में रहती है। भौतिक उत्तेजना की यही शैली है। और ज्योंही पुरुष का संयोग स्त्री से हो जाता है, त्योंही यौन-सम्बन्ध के द्वारा जीव दृढ़ भौतिक बन्धन में बँध जाता है। परिणाम यह होता है कि घर, मातृभूमि, सन्तान, समाज तथा मैत्री एवं सम्पत्ति-संग्रह के प्रति नर-नारी का आकर्षण उसके सम्भ्रान्त कार्यक्षेत्र बन जाते हैं और इस तरह नाशवान संसार के प्रति मिथ्या किन्तु अनथक आकर्षण प्रकट होता है। अत: जो लोग अपने घर अर्थात् भगवद्धाम वापस जाने के लिए मोक्षपथ पर अग्रसर हैं, विशेषकर उनके लिए शास्त्रों का आदेश है कि वे इस प्रकार के भौतिक आकर्षण के साज-समानों से बचे रहें। और ऐसा तभी सम्भव है, जब भगवद्भक्तों अर्थात् महात्माओं की संगति की जाय। कामदेव जीवों पर अपना बाण चलाकर उन्हें विपरीत लिंग के पीछे पागल बनाता है, चाहे वह सुन्दर हो या न हो। कामदेव का प्रभाव उस बर्बर समाज में भी देखा जाता है, जो सभ्य राष्ट्रों की निगाहों में कुरूप हैं। इस तरह कामदेव का प्रभाव कुरूप से कुरूप रूपों में देखा जाता है, तो परम सुन्दरियों के लिए क्या कहा जाय? शिवजी भी, जिन्हें परम सहिष्णु समझा जाता है, कामदेव के बाण द्वारा आहत हुए, क्योंकि वे भगवान् के मोहनी अवतार के पीछे दीवाने हो गये थे और उन्होंने अपनी हार स्वीकार की थी। तो भी वही कामदेव लक्ष्मी के हाव-भाव तथा कटाक्षों से विमोहित हो गया और हताश स्थिति में उसने अपने धनुष-बाण को खुद ही त्याग दिया था। भगवान् कृष्ण की रानियों की सुन्दरता और उनका आकर्षण ऐसा था। फिर भी वे भगवान् की दिव्य इन्द्रियों को विचलित नहीं कर पाईं। इसका कारण यही है कि भगवान् पूर्ण आत्माराम हैं अर्थात् स्वयं-संतुष्ट हैं। उन्हें आत्मतुष्टि के लिए किसी बाह्य सहायता की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसलिये रानियाँ अपने स्त्रियोचित आकर्षण के द्वारा भगवान् को तुष्ट न होते देख, अपने एकनिष्ठ स्नेह तथा सेवा से उन्हें तुष्ट कर सकीं। वे मात्र अनन्य दिव्य प्रेमाभक्ति से ही भगवान् को प्रसन्न कर सकीं और भगवान् ने भी बदले में पत्नियों के रूप में उनके साथ व्यवहार किया। भगवान् ने केवल उनकी अनन्य सेवा से प्रसन्न होकर, पत्नीव्रत पति की भाँति उन्हें प्रतिदान किया। अन्यथा उन्हें इतनी सारी पत्नियों का पति बनने की क्या आवश्यकता थी? वे हर एक के स्वामी (पति) हैं, किन्तु जो उन्हें इस रूप में मानता है, वे उसके साथ वैसा ही प्रतिदान करते हैं। भगवान् के प्रति अनन्य प्रेम की तुलना कभी संसारी कामवासना से नहीं की जानी चाहिए। यह नितान्त दिव्य है। रानियाँ भी जिस स्वाभाविक स्त्रियोचित ढंग से व्यवहार कर रही थीं, वह भी दिव्य था, क्योंकि वे अपने भावों को दिव्य आनन्दवश ही प्रकट कर रही थीं। पिछले श्लोक में यह बताया जा चुका है कि भगवान् एक संसारी पति जैसे प्रतीत हो रहे थे, लेकिन वास्तव में अपनी पत्नियों के साथ उनका यह सम्बन्ध दिव्य, शुद्ध तथा भौतिक प्रकृति के गुणों से मुक्त था।
 
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