हे कमलनयन भगवान्, आप जब भी अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों से भेंट करने मथुरा, वृन्दावन या हस्तिनापुर चले जाते हैं, तो आपकी अनुपस्थिति में प्रत्येक क्षण हमें करोड़ों वर्षों के समान प्रतीत होता है। हे अच्युत, उस समय हमारी आँखें इस तरह व्यर्थ हो जाती हैं मानो सूर्य से बिछुड़ गई हों।
तात्पर्य
हमें अपनी इन्द्रियों पर गर्व है कि हम ईश्वर का अस्तित्व निश्चित करने के लिए उनका प्रयोग करते हैं। लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि हमारी इन्द्रियाँ अपने आप में पूर्ण नहीं हैं। वे कुछ परिस्थितियों में ही कार्य कर सकती हैं। उदाहरण के लिए हमारी आँखों को लीजिए। जब तक सूर्य का प्रकाश होता है, हमारी आँखें कुछ सीमा तक उपयोगी होती हैं। लेकिन सूर्य-प्रकाश के अभाव में आँखें व्यर्थ हो जाती हैं। आदि भगवान्, परम सत्य होने के कारण, श्रीकृष्ण की तुलना सूर्य से की गई है। उनके बिना हमारा सारा ज्ञान या तो असत्य है अथवा अधूरा है। जिस तरह सूर्य का विलोम (दूसरा पक्ष) अंधकार है, इसी प्रकार कृष्ण का विलोम माया है। कृष्ण द्वारा विकीर्ण प्रकाश से भक्तगण सारी वस्तुओं को उनके सही परिप्रेक्ष्य में देख सकते हैं। भगवत्कृपा से शुद्ध भक्त कभी अज्ञान के अंधकार में नहीं रहते। इसलिए यह आवश्यक है कि हम सदा भगवान् कृष्ण की दृष्टि के समक्ष रहें, जिससे हम अपने आपको तथा विभिन्न शक्तियों समेत भगवान् को भी देख सकें। जिस प्रकार सूर्य के अभाव में हम कुछ भी नहीं देख सकते, उसी प्रकार भगवान् की वास्तविक उपस्थिति के बिना हम कुछ भी नहीं, यहाँ तक कि अपने आपको भी नहीं देख सकते। उनके बिना हमारा सारा ज्ञान माया से ठक जाता है।
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