विधूय—पूरी तरह विनष्ट करके; तत्—वह; अमेयात्मा—सर्वव्यापी परमात्मा; भगवान्—भगवान्; धर्म-गुप्—सदाचार के रक्षक; विभु:—परम; मिषत:—निरीक्षण करते हुए; दशमासस्य—जो समस्त दिशाओं के द्वारा वस्त्रावृत हैं, उनका; तत्र एव— तत्क्षण; अन्त:—अदृश्य; दधे—हो गये; हरि:—भगवान् ।.
अनुवाद
इस प्रकार बालक के देखते-देखते, प्रत्येक जीव के परमात्मा तथा धर्म के पालक पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान्, जो सारी दिशाओं में व्याप्त हैं और काल तथा देश की सीमाओं से परे हैं, तुरन्त अन्तर्धान हो गये।
तात्पर्य
बालक परीक्षित कोई ऐसे जीव को नहीं देख रहा था, जो देश तथा काल से बँधा रहता है। भगवान् तथा जीव में जमीन-आसमान का अन्तर होता है। यहाँ पर भगवान् को जो देश-काल की सीमाओं से परे हैं ऐसे परम पुरुष बताया गया है। प्रत्येक जीव देश तथा काल से सीमित है। यद्यपि गुणात्मक रीति से जीव भगवान् से अभिन्न है, लेकिन मात्रात्मक दृष्टि से परमात्मा तथा सामान्य जीवात्मा में काफी अन्तर होता है। भगवद्गीता में जीवात्मा तथा परमात्मा दोनों को सर्वव्यापी कहा गया है (येन सर्वमिदं ततम् ), फिर भी इन दोनों के सर्वव्यापकत्व में अन्तर होता है। सामान्य जीव या आत्मा, अपने खुद के शरीर में ही सर्वव्यापी हो सकता है, किन्तु परमात्मा समस्त देश तथा काल में व्याप्त है। कोई भी सामान्य जीव अपने सर्वव्यापकत्व से दूसरे जीव को प्रभावित नहीं कर सकता, लेकिन परमात्मा अर्थात् पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् असीम रूप से समस्त स्थानों तथा समस्त कालों एवं समस्त जीवों पर अपना प्रभाव डाल सकते हैं। चूँकि वे सर्वव्यापी हैं, देश तथा काल से परे हैं, अतएव वे बालक परीक्षित की माता के गर्भ के भीतर भी प्रकट हो सकते हैं। यहाँ पर उन्हें धर्मपालक कहा गया है। जो भी भगवान् के शरणागत हो चुका है, वह धर्मात्मा है और उसका विशेष रूप से भगवान् द्वारा सभी परिस्थितियों में रक्षण किया जाता है। भगवान् परोक्ष रूप से अधर्मियों के भी रक्षक हैं, क्योंकि वे अपनी बहिरंगा शक्ति के द्वारा उनके पापों को परिशोधित करते हैं। यहाँ पर भगवान् को दशों दिशाओं से वस्त्रावृत कहा गया है। इसका अर्थ यह हुआ कि वे दशों दिशाओं में ऊपर तथा नीचे वस्त्रों से आभूषित हैं। वे सर्वत्र विद्यमान रहते हैं और स्वेच्छा से कहीं भी प्रकट तथा अन्तर्धान हो सकते हैं। बालक परीक्षित की दृष्टि से उनके ओझल होने का यह अर्थ नहीं है कि वे किसी अन्य स्थान से आकर वहाँ प्रकट हुए थे। वे वहीं विद्यमान थे और उनके अन्तर्धान होने के बाद भी वे वहीं थे। हाँ, वे बालक की आँखों को दृष्टिगोचर नहीं हो रहे थे। इस तेजोमय आकाश का भौतिक आवरण भी माता प्रकृति के गर्भ की ही भाँति है और हम सभी जीवों के पिता, भगवान्, द्वारा उस गर्भ में स्थापित किये गये हैं। वे सर्वत्र विद्यमान हैं, यहाँ तक कि माता दुर्गा के भौतिक गर्भ में भी और जो इसके लिए सुयोग्य हैं, वे भगवान् का दर्शन कर सकते हैं।
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