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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 12: सम्राट परीक्षित का जन्म  »  श्लोक 13
 
 
श्लोक  1.12.13 
तस्य प्रीतमना राजा विप्रैर्धौम्यकृपादिभि: ।
जातकं कारयामास वाचयित्वा च मङ्गलम् ॥ १३ ॥
 
शब्दार्थ
तस्य—उसका; प्रीत-मना:—सन्तुष्ट; राजा—राजा युधिष्ठिर; विप्रै:—विद्वान ब्राह्मणों द्वारा; धौम्य—धौम्य; कृप—कृप; आदिभि:—इत्यादि; जातकम्—शिशु-जन्म के तुरन्त बाद सम्पन्न होनेवाला संस्कार; कारयाम् आस—सम्पन्न किया; वाचयित्वा—बाँच कर; —भी; मङ्गलम्—शुभ ।.
 
अनुवाद
 
 महाराज परीक्षित के जन्म से अत्यन्त सन्तुष्ट हुए राजा युधिष्ठिर ने जात-संस्कार करवाया। धौम्य, कृप इत्यादि विद्वान ब्राह्मणों ने शुभ स्तोत्रों का पाठ किया।
 
तात्पर्य
 वर्णाश्रम धर्म में वर्णित संस्कारों को सम्पन्न कराने में निपुण हो ऐसे श्रेष्ठ तथा बुद्धिमान ब्राह्मणों की आवश्यकता है। जब तक ये संस्कार सम्पन्न नहीं कराये जाते, तब तक अच्छी सन्तान की सम्भावना नहीं है और इस कलियुग में, इस संस्कार विधि के अभाव में, सारे संसार की जनता शूद्र गुण वाली या इससे भी निम्न होती है। किन्तु समुचित सुविधाओं तथा उत्तम ब्राह्मणों के अभाव के कारण, इस युग में वैदिक संस्कारों का पुनरुद्धार कर पाना सम्भव नहीं है। लेकिन इस युग के लिए अन्य पद्धति भी संस्तुत है और वह है पाञ्चरात्रिक पद्धति। यह पांचरात्रिक पद्धति शूद्र श्रेणी के लोगों पर लागू की जाती है, जो कलियुग की प्रजा मानी जाती है और युग तथा काल के अनुरूप संस्तुत की जानेवाली यही संस्कार-विधि है। किन्तु यह संस्कार-विधि केवल आध्यात्मिक विकास के निमित्त है, अन्य किसी कार्य के लिए नहीं। आध्यात्मिक उन्नति कभी उच्च या निम्न पैतृकता से नियंत्रित नहीं होती।

गर्भाधान संस्कार के बाद अन्य संस्कार भी होते हैं—यथा सीमान्तोन्नयन, सध-भक्षणम् इत्यादि जो गर्भावस्था-काल में सम्पन्न होते हैं और जब शिशु का जन्म होता है, तो सबसे पहला संस्कार जातकर्म है। यह संस्कार महाराज युधिष्ठिर द्वारा राजपुरोहित धौम्य तथा महान् सेनापति एवं पुरोहित कृपाचार्य जैसे योग्य ब्राह्मणों की सहायता से सम्पन्न कराया गया। महाराज युधिष्ठिर ने इन दोनों विद्वान तथा योग्य पुरोहितों की सहायता के लिए तमाम उत्तम ब्राह्मणों को लगाकर यह उत्सव सम्पन्न कराया। अतएव सारे संस्कार अर्थात् शुद्धीकरण की विधियाँ मात्र औपचारिकताएँ या सामाजिक उत्सव हीं नहीं, अपितु ये व्यवहारणीय हैं और धौम्य तथा कृप जैसे योग्य ब्राह्मणों द्वारा सफलतापूर्वक सम्पन्न कराए जाते हैं। इस युग में ऐसे ब्राह्मण न केवल विरले हैं, अपितु उपलब्ध भी नहीं होते। अतएव इस पतित युग में आध्यात्मिक उन्नति के लिए गोस्वामीजन वैदिक अनुष्ठानों की अपेक्षा पाञ्चरात्रिक सूत्रों को वरीयता प्रदान करते हैं।

कृपाचार्य महर्षि सर्दबन के पुत्र थे और गौतम के वंश में उत्पन्न हुए थे। उनका जन्म एक अकस्मात घटना कही जाती है। संयोगवश महर्षि सर्दबन की भेंट जनपदी नामक स्वर्ग की एक सुप्रसिद्ध अप्सरा से हुई, तो सर्दबन का वीर्य दो भागों में बँट गया। एक भाग तुरन्त बालक बन गया और दूसरा बालिका। इस प्रकार जुड़वाँ बच्चे उत्पन्न हुए—बालक कृप नाम से और बालिका कृपी नाम से विख्यात हुई। महाराज शान्तनु को जंगल में शिकार करते समय, ये शिशु मिले और घर लाकर, संस्कार कराकर, उन्हें ब्राह्मण-पद प्रदान किया। बाद में कृपाचार्य द्रोणाचार्य के समान महान् सेनापति बने और उसकी बहन कृपी, द्रोणाचार्य को ब्याह दी गई। कालान्तर में कृपाचार्य कुरुक्षेत्र के युद्ध में सम्मिलित हुए और दुर्योधन के दल में चले गये। कृपाचार्य, महाराज परीक्षित के पिता अभिमन्यु को मारने में सहायक बने, किन्तु द्रोणाचार्य के ही समान महान् ब्राह्मण होने के कारण, वे अभी भी पाण्डव-कुल द्वारा सम्मानित थे। जब दुर्योधन से द्यूत-क्रीड़ा में हारकर पाण्डव वन चले गये, तो धृतराष्ट्र ने उनके मार्गदर्शन के लिए कृपाचार्य को नियुक्त किया। युद्ध समाप्त होने पर कृपाचार्य पुन: राजसभा के सदस्य बन गये और महाराज परीक्षित के जन्म के समय जन्मोत्सव को सफल बनाने के लिए उन्हें वेद मंत्रोच्चार करने के लिए आमंत्रित किया गया। जब महाराज युधिष्ठिर जब राजप्रासाद त्यागकर हिमालय के लिए महाप्रयाण करने लगे तब वे महाराज परीक्षित को शिष्य-रूप में कृपाचार्य को ही सौंप गये और उन्होंने सन्तुष्ट होकर घर का त्याग किया, क्योंकि महाराज परीक्षित का भार कृपाचार्य ने संभाल लिया था। बड़े-बड़े शासक, राजा तथा सम्राट तक, कृपाचार्य-जैसे विद्वान ब्राह्मणों के मार्गदर्शन में रहते हुए समुचित रूप से राजनैतिक उत्तरदायित्व निभाते थे।

 
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