ब्राह्मणों ने कहा : यह निष्कलंक पुत्र, आप पर अनुग्रह करने के लिए सर्वशक्तिमान तथा सर्वव्यापी भगवान् विष्णु द्वारा बचाया गया है। उसे तब बचाया गया, जब वह दुर्निवार अतिदैवी अस्त्र द्वारा नष्ट होने ही वाला था।
तात्पर्य
सर्वशक्तिमान तथा सर्वव्यापी विष्णु (भगवान् कृष्ण) द्वारा शिशु परीक्षित को दो कारणों से बचा लिया गया था। पहला कारण यह था कि भगवान् का विशुद्ध भक्त होने के कारण अपनी माता के गर्भ में यह शिशु निष्कलंक था। दूसरा कारण यह था कि यह शिशु पुण्यात्मा राजा युधिष्ठिर के पवित्र पूर्वज, पुरु के वंश का एकमात्र उत्तराधिकारी था। भगवान् चाहते हैं कि पवित्र राजाओं की परम्परा चलती रहे, जिससे वे शान्तिमय तथा सम्पन्न जीवन की वास्तविक प्रगति के लिए उनके प्रतिनिधियों के रूप में पृथ्वी पर राज्य करें। कुरुक्षेत्र के युद्ध के पश्चात्, महाराज युधिष्ठिर की अगली पीढ़ी तक विनष्ट हो चुकी थी और उस महान् राजवंश में कोई ऐसा न था, जो दूसरा पुत्र उत्पन्न कर सके। अभिमन्यु-पुत्र, महाराज परीक्षित ही परिवार के एकमात्र जीवित उत्तराधिकारी थे और अश्वत्थामा के दुर्निवार ब्रह्मास्त्र द्वारा उनका भी विनाश होनेवाला था। यहाँ पर भगवान् कृष्ण को विष्णु के रूप में वर्णित किया गया है और यह महत्त्वर्पूण भी है। आदि भगवान् श्रीकृष्ण, अपने विष्णु-रूप में रक्षा तथा संहार का कार्य करते हैं और विष्णु उनके पूर्णांश हैं। भगवान् कृष्ण के सारे सर्वव्यापी कार्यकलाप उनके विष्णु-रूप द्वारा ही सम्पन्न किये जाते हैं। शिशु परीक्षित को यहाँ पर निष्कलंक श्वेत कहा गया है, क्योंकि वे भगवान् के अनन्य भक्त थे। भगवान् के ऐसे अनन्य भक्त इस धरा पर भगवान् के कार्य को सम्पन्न करने के लिए ही प्रकट होते हैं। भगवान् चाहते हैं कि भौतिक सृष्टि के आगे-पीछे मँडरानेवाले बद्धजीवों का उद्धार हो, जिससे वे भगवद्धाम वापस आ सकें। इस तरह भगवान् वेदों जैसा दिव्य साहित्य निर्मित करके, सन्तों तथा साधुओं को दूत के रूप में भेजकर तथा अपना प्रतिनिधि अर्थात् गुरु नियुक्त करके, उनकी सहायता करते हैं। ऐसा दिव्य साहित्य, ऐसे दूत तथा भगवान् के ऐसे प्रतिनिधि निष्कलुष श्वेत होते हैं, क्योंकि भौतिक गुणों का कल्मष उन्हें स्पर्श तक नहीं कर पाता। जब भी उन्हें विनाश का संकट आता है, तो भगवान् सदैव उनकी रक्षा करते हैं। ऐसे मूर्खतापूर्ण संकट निपट भौतिकतावादी पुरुषों द्वारा ढाये जाते हैं। अश्वत्थामा ने बालक परीक्षित पर जिस ब्रह्मास्त्र को छोड़ा था, वह निश्चित रूप से अतिदैवी शक्ति से पूर्ण था और भौतिक जगत की कोई भी वस्तु उसकी भेदन-शक्ति को रोकने में समर्थ न थी। किन्तु सर्वत्र विद्यमान, सर्वशक्तिमान भगवान् अपनी अपार शक्ति द्वारा अपने प्रामाणिक सेवक तथा अपनी अहैतुकी कृपा से सदैव अनुग्रहीत अपने और एक भक्त महाराज युधिष्ठिर के वंशज को बचाने के लिए उसे रोकने में समर्थ हुए।
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