उत्तम राजा (युधिष्ठिर) ने पूछा: हे महात्माओं, क्या यह बालक इस महान् राजवंश में प्रकट हुए अन्य राजाओं की ही तरह राजर्षि, पवित्र नामवाला, उतना ही विख्यात तथा अपनी उपलब्धियों से महिमामंडित होगा?
तात्पर्य
राजा युधिष्ठिर के पूर्वज राजर्षि, पुण्यात्मा तथा अपनी महान् उपलब्धियों से महिमामण्डित थे। वे राज-सिंहासन पर बैठकर भी संत थे। फलस्वरूप राज्य के सारे सदस्य सुखी, पुण्यात्मा, सदाचारी, सुसम्पन्न तथा आध्यात्मिकता में प्रबुद्ध थे। ऐसे महान् साधु राजा महात्माओं तथा आध्यात्मिक आदेशों के कठोर मार्गदर्शन में प्रशिक्षित थे। फलस्वरूप, राज्य साधु पुरुषों से परिपूर्ण रहता था और आध्यात्मिक जीवन सुखमय होता था। महाराज युधिष्ठिर स्वयं अपने पूर्वजों की प्रतिमूर्ति थे और उनकी यह अभिलाषा थी कि उनके बाद जो भी राजा हो, वह उनके महान् पूर्वजों के समान हो। वे विद्वान ब्राह्मणों से यह जानकर प्रसन्न थे कि ज्योतिष-गणना के अनुसार, नवजात शिशु महाभागवत होगा और वे व्यक्तिगत रूप से यह जानने के इच्छुक थे कि बालक अपने महान् पूर्वजों का अनुगमन करनेवाला होगा या नहीं। यही राज-तंत्र की शैली है। शासन चलाने वाले राजा को पुण्यात्मा, उदार भगवद्भक्त तथा छिछोरों के लिए साक्षात् भय होना चाहिए। उसे अबोध जनता के ऊपर राज्य करने के लिए समान रूप से योग्य उत्तराधिकारी भी छोड़ जाना चाहिए। आज के लोकतांत्रिक ढाँचे में, सारे लोग शूद्र के गुणों या उससे भी अधम गुणों तक पतित हो चुके हैं और इन्हीं के प्रतिनिधि द्वारा सरकार चलाई जाती है, जो प्रशासनिक शिक्षा की शास्त्रीय शैली से अनजान होता है। इस प्रकार सारा वातावरण शूद्र-गुणों से व्याप्त हो जाता है, जो काम तथा लोभ के रूप में प्रकट होते हैं। ऐसे प्रशासक प्रतिदिन आपस में लड़ते रहते हैं। प्राय: दलों तथा समूहों के स्वार्थ के कारण मंत्रिमण्डल में परिवर्तन होते रहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति मृत्यु-पर्यन्त राज्य के संसाधनों का दोहन करते रहना चाहता है। कोई भी व्यक्ति राजनैतिक जीवन से तब तक निवृत्ति नहीं ले लेता, जब तक उसे ठोकर मार कर बाहर नहीं कर दिया जाता। भला ऐसे निम्न कोटि के लोग जनता का कल्याण कैसे कर सकते हैं? इसी का परिणाम है भ्रष्टाचार, चालबाजी तथा पाखण्ड। उन्हें विभिन्न पदों का भार सँभालने के पूर्व, श्रीमद्भागवत से यह सीखना चाहिए कि आदर्श प्रशासक कैसा हो।
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