ब्राह्मणा:—उत्तम ब्राह्मणों ने; ऊचु:—कहा; पार्थ—हे पृथा (कुन्ती) पुत्र; प्रजा—जन्म धारण करनेवाले; अविता—पालक; साक्षात्—प्रत्यक्ष; इक्ष्वाकु: इव—राजा इक्ष्वाकु की तरह; मानव:—मनुपुत्र; ब्रह्मण्य:—ब्राह्मणों का अनुयायी तथा आदर करनेवाला; सत्य-सन्ध:—वचन का पक्का; च—भी; राम:—भगवान् राम; दाशरथि:—महाराज दशरथ के पुत्र; यथा—जिस तरह ।.
अनुवाद
विद्वान ब्राह्मणों ने कहा : हे पृथापुत्र, यह बालक मनु-पुत्र, राजा इक्ष्वाकु की ही तरह समस्त जीवों का पालन करनेवाला होगा। और जहाँ तक ब्राह्मणीय सिद्धान्तों के पालन की बात है, विशेष रूप से अपने वचन का पालन करने में, यह महाराज दशरथ के पुत्र भगवान् राम जैसा (दृढ़ प्रतिज्ञ) होगा।
तात्पर्य
प्रजा का अर्थ है इस भौतिक जगत में जन्म लेनेवाला जीव। वास्तव में जीव का न तो जन्म होता है, न मृत्यु होती है, लेकिन भगवान् की सेवा से विलग होने एवं भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व जताने की इच्छा के फलस्वरूप, उसे अपनी भौतिक इच्छाओं की तुष्टि के लिए उपयुक्त शरीर प्रदान किया जाता है। ऐसा होने से, वह जीव भौतिक प्रकृति के नियमों द्वारा बद्ध हो जाता है और उसका भौतिक शरीर उसके कर्म के अनुसार बदलता रहता है। इस प्रकार जीव ८४,००,००० योनियों में देहान्तर करता रहता है। किन्तु भगवान् का अंश होने के कारण, भगवान् न केवल उसके जीवन की सारी आवश्यकताओं की पूर्ति करके उसका पालन करते हैं, अपितु स्वयं तथा अपने प्रतिनिधियों, राजर्षियों द्वारा उसकी रक्षा भी करते हैं। ये राजर्षि, समस्त प्रजा अथवा जीवों को जीवित रहने तथा उन्हें दिये गये बन्दी जीवन को पूरा करने के लिए सुरक्षा प्रदान करते हैं। महाराज परीक्षित वास्तव में एक आदर्श राजर्षि थे, क्योंकि एक बार जब वे अपने राज्य का दौरा कर रहे थे, तो उन्होंने देखा कि साक्षात् कलि एक बेचारी गाय को मारने जा रहा था। उन्होंने उसे तुरन्त बधिक करार करते हुए दण्डित किया। इसका अर्थ यह हुआ कि साधुचरित शासकों द्वारा पशुओं तक को संरक्षण दिया जाता था, जो किसी भावावेश के कारण नहीं था, अपितु इसलिए था कि जिन्होंने इस भौतिक संसार में जन्म लिया है, उन्हें जीवित रहने का अधिकार है। सारे साधु राजा, सूर्य ग्रह के राजा से लेकर पृथ्वी के राजा तक, वैदिक साहित्य के प्रभाव से प्रभावित रहे हैं। वैदिक साहित्य की शिक्षा उच्चतर ग्रहों में भी दी जाती है, जैसा कि भगवद्गीता (४.१) में भगवान् द्वारा सूर्यदेव (विवस्वान्) को उपदेश देने का प्रसंग मिलता है। ऐसी शिक्षाएँ गुरू-शिष्य परम्परा द्वारा चलती रहती हैं, क्योंकि सूर्यदेव ने अपने पुत्र मनु को शिक्षा दी, फिर मनु ने महाराज इक्ष्वाकु को शिक्षा दी। ब्रह्मा के एक दिन में चौदह मनु होते हैं और यहाँ पर जिस मनु का उल्लेख हुआ है, वे सातवें मनु हैं, जो प्रजापतियों में से एक हैं और वे सूर्यदेव के पुत्र हैं। वे वैवस्वत मनु कहलाते हैं। उनके दस पुत्र थे और महाराज इक्ष्वाकु उन्हीं में से एक थे। महाराज इक्ष्वाकु ने अपने पिता मनु से, भगवद्गीता में बताये गये भक्तियोग को भी सीखा। मनु ने इसे अपने पिता सूर्यदेव से प्राप्त किया था। बाद में, महाराज इक्ष्वाकु के बाद, भगवद्गीता की शिक्षा परम्परा द्वारा चलती रही, किन्तु कालक्रम से यह शृंखला पाखण्डियों द्वारा छिन्न कर दी गई। अतएव कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अर्जुन को फिर से इसकी शिक्षा दी गई। इस तरह सारा वैदिक साहित्य, सृष्टि के प्रारम्भ से ही चला आ रहा है और अपौरुषेय कहलाता है, जिसका अर्थ है कि वह मनुष्य द्वारा रचित नहीं है। वैदिक ज्ञान का प्रवचन भगवान् द्वारा किया गया और ब्रह्माण्ड के सर्वप्रथम सृजित जीव ब्रह्मा ने सबसे पहले इसे सुना।
महाराज इक्ष्वाकु—ये वैवस्वत मनु के पुत्रों में से एक थे। इनके १०० पुत्र थे। उन्होंने मांसाहार को प्रतिबन्धित किया। उनकी मृत्यु के बाद उनका पुत्र शशाद् राजा बना।
मनु—इस श्लोक में जिन मनु का उल्लेख इक्ष्वाकु के पिता के रूप में हुआ है, वे सातवें मनु, वैवस्वत मनु अर्थात् सूर्यदेव विवस्वान् के पुत्र थे, जिन्हें भगवान् कृष्ण ने अर्जुन के पूर्व भगवद्गीता का उपदेश दिया था। समस्त मानव जाति मनु के वंशज हैं। इन वैवस्वत मनु के दस पुत्र थे, जिनके नाम थे इक्ष्वाकु, नभग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यन्त, नाभाग, दिष्ट, करुष, पृषध्र तथा वसुमान। भगवान् का मत्स्य- अवतार वैवस्वत मनु के प्रारम्भ में हुआ था। उन्होंने अपने पिता, सूर्यदेव विवस्वान् से भगवद्गीता के नियमों की शिक्षा प्राप्त की और इसे उन्होंने अपने पुत्र महाराज इक्ष्वाकु को प्रदान किया। त्रेतायुग के प्रारम्भ में, सूर्यदेव ने मनु को भक्तिमय सेवा का पाठ पढ़ाया और मनु ने सम्पूर्ण मानव समाज के कल्याण हेतु इक्ष्वाकु को भक्ति की शिक्षा दी।
भगवान् राम—पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् ने साक्षात् श्रीराम के रूप में, अपने विशुद्ध भक्त, अयोध्या के राजा महाराज दशरथ का पुत्रत्व स्वीकार करके स्वयं अवतार लिया। भगवान् राम अपने पूर्ण अंशों के समेत अवतरित हुए और वे सब उनके छोटे भाइयों के रूप में प्रकट हुए। भगवान् त्रेतायुग में, चैत्रमास में शुक्ल पक्ष की नवमी को, हमेशा की तरह धर्म की स्थापना करने तथा अधर्मियों का विनाश करने के लिए अवतरित हुए। अभी वे तरुण ही थे कि उन्होंने सुबाहु को मारकर तथा नैत्यिक कार्यों में बाधा डालनेवाली राक्षसी मारीचा का वध करके विश्वामित्र की सहायता की। ब्राह्मण तथा क्षत्रियों का कार्य जन-कल्याण के लिए एक-दूसरे से सहयोग करने का होता है। ब्राह्मण मुनि अपने पूर्ण ज्ञान द्वारा लोगों को प्रबुद्ध करते हैं और क्षत्रिय उनकी रक्षा करते हैं। भगवान् रामचन्द्र मानवता की उत्कृष्टतम संस्कृति के, जिसे ब्रह्मण्य धर्म कहते हैं, पालन तथा संरक्षण के लिए आदर्श राजा हैं। वे विशेष रूप से गायों तथा ब्राह्मणों के रक्षक हैं, अतएव वे जगत की सम्पन्नता को बढ़ानेवाले हैं। उन्होंने प्रशासक देवताओं को विश्वामित्र के माध्यम से असुरों को जीतने के लिए प्रभावशाली अस्त्र प्रदान किये। वे राजा जनक के धनुष-यज्ञ में उपस्थित हुए थे और शिवजी के अजेय धनुष को तोडक़र, महाराज जनक की पुत्री सीतादेवी के साथ ब्याह किया।
विवाह के बाद उन्होंने अपने पिता महाराज दशरथ के आदेश से चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार किया। देवताओं के प्रशासन में सहायता करने के लिए, उन्होंने चौदह हजार असुरों का बध किया। रावण ने, असुरों की चाल से, उनकी पत्नी सीतादेवी का अपहरण किया। उन्होंने सुग्रीव से मैत्री स्थापित की और उसके भाई वालि को मारने में सहायता की। भगवान् राम की सहायता से सुग्रीव वानरों का राजा बना। भगवान् ने हिन्द महासागर में पत्थरों का तैरता हुआ एक सेतु बनाया और सीता के अपरहणकर्ता रावण के राज्य लंका में पहुँचे। तत्पश्चात् उन्होंने रावण का वध किया और लंका के सिंहासन पर रावण के भाई विभीषण को बैठाया। यद्यपि विभीषण राक्षस रावण का भाई था, किन्तु भगवान् राम ने उसे अपने वर से अमर बना दिया। चौदह वर्ष बीतने पर लंका का निपटारा करके, भगवान् पुष्पक विमान द्वारा अपने राज्य अयोध्या लौट आये। उन्होंने अपने भाई शत्रुघ्न को आदेश दिया कि मथुरा पर शासन चलानेवाले असुर लवणासुर पर आक्रमण करे। उन्होंने उस असुर का वध किया। उन्होंने दस अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न किये और बाद में वे सरयू नदी में स्नान करते-करते अन्तर्धान हो गये। रामायण नामक महाकाव्य इस संसार में भगवान् राम की लीलाओं का इतिहास है और प्रामाणिक रामायण का लेखन महाकवि वाल्मीकि द्वारा सम्पन्न हुआ।
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