तस्य जन्म महाबुद्धे: कर्माणि च महात्मन: ।
निधनं च यथैवासीत्स प्रेत्य गतवान् यथा ॥ २ ॥
शब्दार्थ
तस्य—उसका (महाराज परीक्षित का); जन्म—जन्म; महा-बुद्धे:—अत्यन्त बुद्धिमान का; कर्माणि—कार्यकलाप; च—भी; महा-आत्मन:—महान्; निधनम्—मृत्यु; च—तथा; यथा—जिस प्रकार; एव—निस्सन्देह; आसीत्—हुआ; स:—वह; प्रेत्य— मृत्यु के पश्चात् गन्तव्य; गतवान्—प्राप्त किया; यथा—जिस तरह ।.
अनुवाद
अत्यन्त बुद्धिमान तथा महान् भक्त महाराज परीक्षित उस गर्भ से कैसे उत्पन्न हुए? उनकी मृत्यु किस तरह हुई? और मृत्यु के बाद उन्होंने कौन सी गति प्राप्त की?
तात्पर्य
कम से कम महाराज परीक्षित के पुत्र के जीवन-काल तक, हस्तिनापुर (अब दिल्ली) का राजा सारे विश्व का सम्राट होता था। महाराज परीक्षित की रक्षा उनकी माता के गर्भ में भगवान् द्वारा की जा चुकी थी। अतएव वे एक ब्राह्मण-पुत्र के शाप से अकाल-मृत्यु से वे निश्चित ही बचाये जा सकतेथे। चूँकि महाराज परीक्षित द्वारा राज्य सँभालने के बाद ही कलियुग ने अपना कार्य करना शुरू कर दिया था, अतएव इसका जो पहला कुलक्षण प्रकट हुआ, वह था इतने बुद्धिमान तथा भक्त राजा, महाराज परीक्षित, का शापित होना। राजा तो असहाय नागरिकों का रक्षक होता है और उन सबका कल्याण, शान्ति तथा सम्पन्नता उसी पर निर्भर रहती है। दुर्भाग्यवश, पतित कलियुग के बहकावे में आकर, एक अभागे ब्राह्मण-पुत्र द्वारा निर्दोष महाराज परीक्षित को लांछित कराया गया और इस तरह राजा को सात दिनों में अपनी मृत्यु के लिए तैयार होना था। महाराज परीक्षित, विष्णु द्वारा रक्षा किये जाने के लिए, विशेष रूप से विख्यात हैं। अतएव जब एक ब्राह्मण-पुत्र ने उन्हें वृथा ही शाप दे डाला, तब भी यदि वे चाहते तो अपनी रक्षा के लिए भगवान् की कृपा का आवाहन कर सकते थे, किन्तु शुद्ध भक्त होने के कारण उन्होंने ऐसा नहीं करना चाहा। शुद्ध भक्त कभी भी भगवान् से अनावश्यक कृपा याचना नहीं करता। महाराज परीक्षित को ज्ञात था और अन्य लोगों को भी पता था कि ब्राह्मण-पुत्र द्वारा दिया शाप अवैध है, किन्तु वे उसका प्रतिकार करना नहीं चाहते थे, क्योंकि वे यह भी जानते थे कि कलियुग का शुभारम्भ हो चुका है और इस युग का पहला लक्षण भी, अत्यन्त प्रतिभावान ब्राह्मण जाति के पतन के साथ प्रकट हो चुका है। वे काल-प्रवाह के मार्ग में बाधक बनना नहीं चाह रहे थे, अपितु वे खुशी-खुशी और उचित ढंग से मृत्यु-वरण करने के लिए तैयार थे। वे भाग्यशाली थे कि मृत्यु के लिए तैयारी करने के लिए उन्हें कम से कम सात दिन का समय मिला था। अतएव उन्होंने इस समय का सदुपयोग परम सन्त तथा भगवद्भक्त शुकदेव गोस्वामी के सान्निध्य में किया।
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