श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 12: सम्राट परीक्षित का जन्म  »  श्लोक 24
 
 
श्लोक  1.12.24 
सर्वसद्गुणमाहात्म्ये एष कृष्णमनुव्रत: ।
रन्तिदेव इवोदारो ययातिरिव धार्मिक: ॥ २४ ॥
 
शब्दार्थ
सर्व-सत्-गुण-माहात्म्ये—समस्त दैवी गुणों से महिमान्वित; एष:—यह बालक; कृष्णम्—भगवान् कृष्ण की तरह; अनुव्रत:— उनके पदचिह्नों पर चलनेवाला; रन्तिदेव:—रन्तिदेव; इव—सदृश; उदार:—उदार; ययाति:—ययाति; इव—सदृश; धार्मिक:— धर्म के मामले में ।.
 
अनुवाद
 
 यह बालक भगवान् श्रीकृष्ण के चरणचिन्हों का पालन करते हुए, उन्हीं के समान होगा। उदारता में यह राजा रन्तिदेव के समान तथा धर्म में यह महाराज ययाति की भाँति होगा।
 
तात्पर्य
 भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण का अन्तिम उपदेश यह है कि मनुष्य सब कुछ त्याग कर भगवान् के ही चरणचिह्नों का अनुसरण करे। अल्पज्ञानी लोग इस महान् उपदेश को स्वीकार नहीं करते, जो उनका दुर्भाग्य ही है, किन्तु जो मनुष्य सचमुच बुद्धिमान है, वह इस अलौकिक उपदेश को ग्रहण करके तुरन्त लाभान्वित होता है। मूर्ख लोग यह नहीं जानते कि संगति से ही गुण ग्रहण किये जाते हैं। यहाँ तक कि भौतिक अर्थ में भी, अग्नि की संगति से कोई भी वस्तु गरम हो जाती है। अतएव परम पुरुषोत्तम भगवान् की संगति से मनुष्य भगवान् के ही समान योग्य बन जाता है। जैसाकि हम पहले कह चुके हैं, भगवान् की घनिष्ठ संगति से हम ७८ प्रतिशत भगवदीय गुण प्राप्त कर सकते हैं। भगवान् के आदेशों का पालन करना ही भगवान् की संगति करना है। भगवान् कोई भौतिक वस्तु नहीं हैं, जिसकी उपस्थिति का अनुभव ऐसा संग करने के लिए आवश्यक होता है। भगवान् सर्वत्र और सभी काल में उपस्थित रहते हैं। यह पूरा सम्भव है कि केवल उनके आदेश पालन करने से ही उनकी संगति प्राप्त हो जाए, क्योंकि भगवान् एवं उनका आदेश तथा भगवान् एवं उनका नाम, यश, गुण तथा साज-सामान, परम ज्ञान होने के कारण उनसे अभिन्न हैं। महाराज परीक्षित अपनी माता के गर्भ से लेकर अपने अमूल्य जीवन के अन्तिम क्षणों तक भगवान् की संगति में रहे, अतएव उन्होंने भगवान् के सारे अनिवार्य उत्तम गुण, पूर्णतया अर्जित कर लिये थे।

रन्तिदेव—ये महाभारत काल से भी पहले के प्राचीन राजा हैं, जिनका उल्लेख नारदमुनि ने संजय को उपदेश देते हुए किया था, जैसा कि महाभारत (द्रोण पर्व ६७) से ज्ञात होता है। ये महान् राजा थे और आतिथ्य के लिए तथा भोजन वितरण करने के लिए विख्यात थे। यहाँ तक कि भगवान् श्रीकृष्ण ने भी इनके दान तथा आतिथ्य की प्रशंसा की थी। वशिष्ठ मुनि को शीतल जल प्रदान करने के कारण उन्हें उनसे वर प्राप्त हुआ, जिस से वे स्वर्गलोक गये। वे ऋषियों को फल, कन्द तथा पत्तियाँ पहुँचाया करते थे, जिससे इच्छापूर्ति होने के कारण वे आशिष दिया करते थे। यद्यपि वे जन्म से क्षत्रिय थे, किन्तु उन्होंने अपने जीवन में कभी भी मांस भक्षण नहीं किया। उन्होंने वशिष्ठ मुनि का विशेष आतिथ्य किया और उनके आशीर्वाद से ही उन्हें स्वर्गलाभ हुआ। वे उन राजाओं में से हैं, जिनका स्मरण हर प्रात: तथा संध्या समय किया जाता है।

ययाति—ये विश्व के महान् सम्राट और आर्य तथा भारोपीय कुल से सम्बन्धित समस्त महान् राष्ट्रों के आदि पूर्वज थे। ये महाराज नहुष के पुत्र थे और अपने बड़े भाई के मुक्त योगी हो जाने पर विश्व के सम्राट बने थे। उन्होंने कई हजार वर्षों तक राज्य किया और अनेक यज्ञ तथा पुण्यकार्य किये जिनका इतिहास साक्षी है, यद्यपि उनका प्रारम्भिक यौवन अत्यन्त वासनामय तथा प्रेमपूर्ण कहानियों से भरा पड़ा था। वे देवयानी के प्रेमपाश में फँस गये, जो शुक्राचार्य की सर्वाधिक प्रिय पुत्री थी। देवयानी उनसे विवाह करना चाहती थी, किन्तु ब्राह्मण की पुत्री होने के कारण, ययाति ने पहले उसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। शास्त्रों के अनुसार केवल एक ब्राह्मण ही ब्राह्मण की कन्या के साथ विवाह कर सकता था। वे विश्व में वर्ण-संकर जनसंख्या के प्रति विशेष सतर्क रहते थे। लेकिन शुक्राचार्य ने वर्जित विवाह के इस नियम को संशोधित करके राजा ययाति से देवयानी को स्वीकार करने के लिए आग्रह किया। देवयानी की एक सखी शर्मिष्ठा थी, वह भी राजा से प्रेम करने लगी थी। अतएव वह अपनी सखी देवयानी के साथ ससुराल गई। शुक्राचार्य ने सम्राट ययाति को मना किया कि वह शर्मिष्ठा को अपने शयन-कक्ष में न बुलाए, लेकिन ययाति उनके आदेशों का दृढ़ता से पालन न कर सके। उन्होंने चुपके से शर्मिष्ठा से भी विवाह कर लिया, जिससे उनके कई पुत्र हुए। जब इसका पता देवयानी को चला, तो वह अपने पिता के पास गई और शिकायत की। ययाति देवयानी के प्रति अत्यन्त आसक्त थे। अतएव जब वे उसे बुलाने अपने श्वसुर के घर गये, तो शुक्राचार्य ने क्रुद्ध होकर उन्हें शाप दे दिया कि वह नपुंसक हो जाये। ययाति ने अपने श्वसुर से विनती की कि वे शाप को वापस ले लें। लेकिन मुनि ने ययाति को यौवन लौटाने की शर्त के तौर पर उनसे कहा कि वे अपने पुत्रों का यौवन लेकर, उन्हें वृद्ध एवं नपुंसक हो जाने दें। उनके पाँच पुत्र थे, जिनमें से दो देवयानी से प्राप्त हुए थे और तीन शर्मिष्ठा से। उनके पाँच पुत्रों (१) यदु, (२) तुर्वसु, (३) द्रुह्यु, (४) अनु तथा (५) पुरु से, क्रमश: पाँच विख्यात वंशों का उद्भव हुआ—(१) यदुवंश, (२) यवन (तुर्क) वंश (३) भोजवंश, (४) म्लेच्छ

वंश (ग्रीक) तथा (५) पौरव। ये सारे वंश विश्व भर में फैल गये। वे अपने पुण्यकर्मों से स्वर्गलोक पहुँच गये, लेकिन आत्म-प्रशंसा तथा अन्य महात्माओं की आलोचना करने के कारण उन्हें वहाँ से नीचे गिरना पड़ा। उनके पतन के बाद, उनकी कन्या तथा पौत्र ने उन्हें अपने सारे संचित पुण्य प्रदान किये और वे अपने पौत्र तथा अपने मित्र शिबि की सहायता से पुन: स्वर्गलोक में पहुँच सके, जहाँ वे यमराज की सभा के सदस्य बने और भक्त के रूप में वहीं रहते रहे। उन्होंने एक हजार से अधिक यज्ञ किये और मुक्तहस्त दान दिया। वे अत्यन्त प्रभावशाली राजा थे। सारे विश्व में उनका दबदबा था। जब वे कामवासना से एक हजार वर्षों तक अत्यधिक पीडि़त रहे, तो उनके सबसे छोटे पुत्र ने उन्हें अपना यौवन अर्पित किया। अन्तत:, वे सांसारिक जीवन से विरक्त हो गये और उन्होंने अपने पुत्र पुरु को उसका यौवन लौटा दिया। उन्होंने पुरु को राज्य भी सौंपना चाहा, लेकिन उनके दरबारी तथा प्रजागण इसके लिए राजी न हुए। किन्तु जब उन्होंने उनसे राजा पुरु की महानता का बखान किया, तो वे उसे राजा स्वीकार करने के लिए राजी हो गये और इस तरह सम्राट ययाति गृहस्थ जीवन से विरक्त होकर गृहत्याग कर, वन चले गये।

 
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