वह ब्राह्मण पुत्र के द्वारा भेजे गये तक्षक नाग के डसने से अपनी मृत्यु होने की बात सुनकर समस्त भौतिक आसक्ति से अपने आपको मुक्त करके, भगवान् को आत्म-समर्पण करके उन्हीं की शरण ग्रहण करेगा।
तात्पर्य
भौतिक आसक्ति तथा भगवान् के चरणकमलों की शरण ग्रहण करने में कोई मेल नहीं है। भौतिक आसक्ति का अर्थ है भगवान् की शरण में दिव्य सुख के प्रति अज्ञान। इस संसार में रहते हुए, भगवान् की भक्तिमय सेवाभगवान् के साथ दिव्य सम्बन्ध बनाये रखने के लिए अभ्यास करने का साधन है और जब यह परिपक्व हो जाती है, तो मनुष्य समस्त भौतिक आसक्ति से मुक्त हो जाता है और भगवाद्धाम वापस जाने के लिए सक्षम बन जाता है। महाराज परीक्षित, अपनी माता के गर्भ में शरीर धारण करते हुए ही भगवान् के प्रति विशेष रूप से अनुरक्त हो चुके थे और निरन्तर भगवान् की शरण में रह रहे थे। ब्राह्मण पुत्र द्वारा दिये गये शाप के सात दिन के भीतर ही अपनी मृत्यु की तथाकथित चेतावनी उनके लिए वरदान थी, क्योंकि इससे वे भगवद्धाम वापस जाने की तैयारी कर सकते थे। चूँकि वे भगवान् द्वारा सदा ही रक्षित थे, अतएव यदि वे चाहते तो भगवत्कृपा से इस शाप के प्रभाव से बच सकते थे। लेकिन उन्होंने बिना किसी कारण के भगवत्कृपा का अनुपयुक्त लाभ उठाना पसन्द नहीं किया। प्रत्युत उन्होंने इस नुकसान के सौदे का सर्वोत्तम लाभ उठाया। उन्होंने लगातार सात दिनों तक उपयुक्त पात्र से श्रीमद्भागवत सुना और इस तरह वे भगवान् के चरणकमलों का आश्रय प्राप्त कर सके।
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