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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 12: सम्राट परीक्षित का जन्म  »  श्लोक 33
 
 
श्लोक  1.12.33 
तदभिप्रेतमालक्ष्य भ्रातरोऽच्युतचोदिता: ।
धनं प्रहीणमाजह्रुरुदीच्यां दिशि भूरिश: ॥ ३३ ॥
 
शब्दार्थ
तत्—उसका; अभिप्रेतम्—मन की इच्छा, अभिप्राय; आलक्ष्य—देखकर; भ्रातर:—अपने भाई; अच्युत—अच्युत, (भगवान् श्रीकृष्ण); चोदिता:—प्रेरणा पाकर; धनम्—धन; प्रहीणम्—एकत्र करके; आजह्रु:—ले आया; उदीच्याम्—उत्तरी; दिशि— दिशा; भूरिश:—प्रचुर ।.
 
अनुवाद
 
 राजा की हार्दिक इच्छाओं को जानकर, उसके भाइयों ने अच्युत भगवान् कृष्ण की प्रेरणानुसार, उत्तर दिशा से (राजा मरुत्त द्वारा छोड़ा गया) प्रचुर धन एकत्र किया।
 
तात्पर्य
 महाराज मरुत्त—ये विश्व के एक महान् सम्राट थे। इन्होंने महाराज युधिष्ठिर से काफी पहले संसार पर राज्य किया था। ये महाराज अविक्षित के पुत्र थे और सूर्यदेव के यमराज नामक पुत्र के महान् भक्त थे। इनका भाई संवर्त, देवताओं के विद्वान पुरोहित वृहस्पति का प्रतिद्वन्द्वी पुरोहित था। उसने शंकर-यज्ञ का संचालन किया जिससे भगवान् इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने उसे स्वर्ण के पर्वत-

शृंग का अधिकारी बना दिया। यह स्वर्ण-शंगृ हिमालय पर्वत में कहीं पर है और आधुनिक साहसिक यात्री इसकी खोज कर सकते हैं। यह सम्राट इतना शक्तिशाली था कि प्रतिदिन यज्ञ समाप्त होने के बाद, इन्द्र, चन्द्र तथा बृहस्पति लोकों के देवता उसके महल में आया करते थे। चूँकि उसके अधिकार में स्वर्ण-शंगृ था, अतएव उसके पास प्रचुर सोना था। उसके यज्ञ की वेदी का मण्डप पूर्णतया सोने से बनाया गया था। नित्य किये जानेवाले याज्ञिक अनुष्ठानों में, वायुलोक के कुछ निवासियों को रसोई बनाने के काम जल्दी करने के लिए आमंत्रित किया जाता था तथा देवों की सभा का नेतृत्व विश्वदेव करते थे।

अपने निरन्तर पुण्यकर्मों से वे अपने राज्य से समस्त प्रकार की व्यधियों को दूर रखने में समर्थ हुए थे। उनके महान् याज्ञिक उत्सवों से देवलोक तथा पितृलोक के सारे निवासी प्रसन्न थे। वे प्रतिदिन विद्वान ब्राह्मणों को शय्या, आसन, वाहन तथा प्रचुर सोना दान में देते रहते थे। अपने मुक्तहस्त दान तथा असंख्य यज्ञ सम्पन्न करने के कारण, स्वर्ग के राजा इन्द्रदेव उन पर अत्यधिक प्रसन्न थे और सदा उनकी मंगल कामना करते थे। अपने पुण्यकर्मों के कारण, वे आजीवन युवक बने रहे और अपनी सन्तुष्ट प्रजा, मंत्रियों, वैध पत्नी, पुत्रों तथा भाइयों के साथ रहकर, उन्होंने एक हजार वर्षों तक राज्य किया। यहाँ तक कि भगवान् श्रीकृष्ण ने भी उनके पुण्यकर्मों की प्रशंसा की है। उन्होंने अपनी एकमात्र पुत्री का विवाह महर्षि अंगिरा से कर दिया था और उनके आशीर्वाद से वे स्वर्गलोक का भागी बने। पहले तो वे यज्ञों का पौरोहित्य विद्वान बृहस्पति को देना चाहते थे, लेकिन बृहस्पति ने इस पद को अस्वीकार कर दिया, क्योंकि राजा इसी धरती का एक मर्त्य प्राणी होता था। इससे वे अत्यन्त दुखी हुए, लेकिन नारद मुनि के कहने पर, उन्होंने संवर्त को इस पद पर नियुक्त किया और अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त की।

किसी विशेष यज्ञ की सफलता इसके प्रभारी पुरोहित पर निर्भर करती है। इस युग में सभी प्रकार के यज्ञ वर्जित हैं, क्योंकि तथाकथित ब्राह्मणों में कोई ऐसा विद्वान पुरोहित नहीं है। वे बिना किसी योग्यता के ही, ब्राह्मण पुत्र होने से ब्राह्मण बन जाते हैं। अतएव इस कलियुग में केवल एक प्रकार के यज्ञ की संस्तुति की गई है, वह है सङ्कीर्तन यज्ञ जिसका उद्घाटन भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा हुआ था।

 
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