महाराज युधिष्ठिर विश्व के आदर्श एवं विख्यात पुण्यात्मा राजा थे, फिर भी वे कुरुक्षेत्र युद्ध के समापन पर अत्यधिक भयभीत थे, क्योंकि इस युद्ध में में बड़ी मात्रा में नर-संहार हुआ था और यह सब उन्हें सिंहासन पर आरूढ़ करने के लिए किया गया था। अतएव युद्ध में होनेवाले सारे पापों का उत्तरदायित्व उन्होंने अपने ऊपर ले लिया और इन पापों से छुटकारा पाने के लिए उन्होंने तीन अश्वमेध यज्ञ करने चाहे, जिसमें घोड़े की बलि दी जाती है। ऐसे यज्ञ काफी महँगे पड़ते हैं। इसके लिए महाराज युधिष्ठिर को भी महाराज मरुत्त का सोना तथा उनके द्वारा ब्राह्मणों को दिया गया सोना लाना पड़ा। चूँकि विद्वान ब्राह्मण महाराज मरुत्त द्वारा दान दिया गया सारा सोना अपने साथ नहीं ले जा सके थे, अतएव दान में प्राप्त बहुत सा सोना वे वहीं छोड़ गए थे। महाराज मरुत्त भी इस तरह दान दिये गए सोने को फिर से संग्रह नहीं कर सकते थे। इसके अतिरिक्त यज्ञ में काम आनेवाले सारे स्वर्ण की थालियाँ तथा पात्र कूड़े में फेंक दिये गए थे और यह सोना तब तक बिना किसी के स्वामीत्व का पड़ा रहा, जब तक महाराज युधिष्ठिर ने अपने काम के लिए उसे एकत्र नहीं कर लिया। भगवान् श्रीकृष्ण ने महाराज युधिष्ठिर के भाइयों को सलाह दी कि वे बिना किसी के स्वामीत्व के सोने को ले आयें, क्योंकि यह सोना राजा का था। सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह थी कि राज्य की प्रजा ने ऐसे अनधिकृत सोने को एकत्र करके किसी उद्योग अथवा ऐसे ही किसी उद्यम में नहीं लगाया। इसका अर्थ यह हुआ कि राज्य की प्रजा अपनी सभी आवश्यकताओं में अत्यन्त सन्तुष्ट थी, अतएव इन्द्रियतृप्ति के लिए व्यर्थ का उद्योग नहीं चलाना चाहती थी। महाराज युधिष्ठिर ने यह स्वर्ण राशि यज्ञ सम्पन्न करने तथा भगवान् हरि को प्रसन्न करने के लिए मँगवाई, अन्यथा राजकोष के लिए संग्रह करने की उनमें कोई आकांक्षा न थी। हमें चाहिए कि महाराज युधिष्ठिर के कर्मों से शिक्षा ग्रहण करें। वे युद्धस्थल में घटित पापों से भयातुर थे, अतएव वे परम पुरुष को प्रसन्न करना चाह रहे थे। इससे संकेत मिलता है कि हमारे दैनिक कार्यकलापों में अनायास पाप होते रहते हैं और ऐसे अनचाहे पापों के प्रायश्चित्त के लिए, शास्त्रों द्वारा अनुमोदित यज्ञ सम्पन्न करने चाहिए। भगवद्गीता में भगवान् कहते हैं (यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन:) कि समस्त अवैध कर्म करने या अनिच्छित अपराधों से छुटकारा पाने के लिए मनुष्य को शास्त्रों द्वारा अनुमोदित यज्ञ सम्पन्न करने चाहिए। ऐसा करने से वह सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाएगा। किन्तु जो ऐसा नहीं करते हैं और स्वार्थ अथवा इन्द्रियतृप्ति के लिए कर्म करते हैं, उन्हें अपने द्वारा किये गये पापों का कष्ट उठाना पड़ता है। अतएव यज्ञ करने का मुख्य प्रयोजन परम पुरुष हरि को प्रसन्न करना है। यज्ञ की विधियाँ देश, काल तथा व्यक्ति के अनुसार बदल सकती हैं, किन्तु यज्ञों का उद्देश्य सभी काल में तथा सभी परिस्थितियों में एक ही रहता है और वह है परमेश्वर हरि की तुष्टि। पुण्यमय जीवन की यही रीति है और यही संसार में शान्ति तथा सम्पन्नता लाने की विधि है। महाराज युधिष्ठिर ने संसार के आदर्श पुण्यात्मा राजा के रूप में यह सब किया।
यदि महाराज युधिष्ठिर अपने दैनिक कार्यों को सम्पन्न करने में, राज्य कार्यों के संचालन में, जहाँ मनुष्य तथा पशुओं के वध को मानी हुई कला समझा जाता है, पाप कर बैठते तो जरा अनुमान करें कि कलियुग की अप्रशिक्षित जनता जाने तथा अनजाने में कितना पाप करती होगी, जिनके पास भगवान् को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ सम्पन्न करने का कोई साधन भी नहीं है। अत: भागवत का कथन है कि मनुष्य का मुख्य कर्तव्य यह है कि अपने वृत्तिपरक कार्यों को सम्पन्न करके परमेश्वर को प्रसन्न करे (भागवत १.२.१३)।
भले ही कोई, किसी भी स्थान या समुदाय, जाति या सम्प्रदाय का कोई व्यक्ति किसी भी वृत्तिपरक कार्य में क्यों न लगा हो, लेकिन उसे देश, काल तथा पात्र के अनुसार शास्त्रोचित यज्ञ करने चाहिए। वैदिक ग्रंथों में संस्तुति की गई है कि कलियुग में लोग, बिना अपराध के, कृष्ण के पवित्र नाम के कीर्तन द्वारा भगवान् का गुणगान करें (कीर्तनाद् एव कृष्णस्य मुक्तसङ्ग: परं व्रजेत् )। ऐसा करने से मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है और भगवद्धाम वापस जा कर जीवन की परम सिद्धि प्राप्त कर सकता है। हम इस ग्रंथ में कई स्थानों पर, विशेष रूप से आरम्भ में भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का जीवन-वृत्त प्रस्तुत करते समय, इस विषय में बता चुके हैं और अब भी समाज में शान्ति तथा सम्पन्नता के लिए उसी को दुहरा रहे हैं।
भगवान् ने भगवद्गीता में खुलकर घोषणा की है कि वे किस तरह हम पर प्रसन्न होते हैं और वही विधि भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु के जीवन तथा उनके उपदेश-कार्य से प्रदर्शित होती है। भगवान् हरि (परम भगवान् जो हमें संसार के सब कष्टों से मुक्त करते हैं) को जो हमें इस भवबंधन से छुटकारा दिलाते हैं, प्रसन्न करने के लिए यज्ञ सम्पन्न करने की सम्यक् विधि यही है कि इस कलह तथा विरोध के अंधकारमय युग में भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु के मार्ग का पालन किया जाय।
महाराज युधिष्ठिर को समृद्धि के दिनों में अश्वमेध यज्ञ करने के लिए सामग्री जुटाने हेतु स्वर्ण राशि एकत्र करनी पड़ी थी। अतएव आज के अभावग्रस्त तथा स्वर्ण के सर्वथा अभाव के दिनों में हम ऐसे यज्ञ सम्पन्न करने की बात नहीं सोच सकते हैं। इस समय हमारे पास कागज का अम्बार है और आधुनिक सभ्यता के आर्थिक विकास द्वारा उसे स्वर्ण में बदलने का वादा किया जाता है। फिर भी हम न तो व्यक्तिगत रूप से, न सामूहिक या राज्य संरक्षण में, महाराज युधिष्ठिर के समान प्रचुर धन खर्च कर सकते हैं। अतएव इस युग के लिए शास्त्र सम्मत तथा भगवान् चैतन्य महाप्रभु द्वारा अनुमोदित विधि ही सर्वथा उपयुक्त है। इस विधि में किसी भी प्रकार का खर्च नहीं होता, फिर भी इससे अन्य व्ययसाध्य यज्ञ विधियों से अधिक लाभ पहुँचता है।
वैदिक विधानों द्वारा सम्पन्न होनेवाले अश्वमेध यज्ञों या गोमेध यज्ञों से यह नहीं समझना चाहिए कि ये पशुओं को मारने की विधियाँ हैं। वास्तव में यज्ञ में बलि किये गये पशु वैदिक मंत्रों के उच्चारण की दिव्य शक्ति से नया जीवन प्राप्त करते थे। समुचित विधि से मंत्र उच्चारण करने की शक्ति सामान्य लोगों की समझ से बाहर है। सारे वेद-मंत्र व्यावहारिक हैं और इसका प्रमाण था, बलि किये गये पशु को नवजीवन का प्राप्त होना।
आधुनिक युग के तथाकथित ब्राह्मणों या पुरोहितों द्वारा इस प्रकार से वैदिक मंत्रों का विधिपूर्वक उच्चारण हो पाना सम्भव नहीं है। द्विज कुलों की अप्रशिक्षित सन्तानें अपने पूर्वजों जैसी नहीं हैं। अतएव उनकी गिनती शूद्रों में अर्थात् एक-जन्मा में की जाती है। ऐसा मनुष्य वैदिक मंत्रों का उच्चारण करने के लिए अयोग्य होता है, अतएव मूल-मंत्रों का उच्चारण करने से कोई लाभ नहीं होता है।
भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने इन सबों की रक्षा करने के लिए समस्त व्यावहारिक कार्यों के लिए सङ्कीर्तन आन्दोलन या यज्ञ का विधान किया था और आधुनिक युग के लोगों के लिए इस निश्चित तथा संस्तुत मार्ग का अनुसरण करने के लिए पुरजोर संस्तुति की गई है।