श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 12: सम्राट परीक्षित का जन्म  »  श्लोक 4
 
 
श्लोक  1.12.4 
सूत उवाच
अपीपलद्धर्मराज: पितृवद् रञ्जयन् प्रजा: ।
नि:स्पृह: सर्वकामेभ्य: कृष्णपादानुसेवया ॥ ४ ॥
 
शब्दार्थ
सूत: उवाच—श्री सूत गोस्वामी ने कहा; अपीपलत्—शासित सम्पन्नता; धर्म-राज:—राजा युधिष्ठिर ने; पितृ-वत्—अपने पिता के समान; रञ्जयन्—प्रसन्न करते हुए; प्रजा:—जन्म ग्रहण करने वालों को; नि:स्पृह:—बिना किसी व्यक्तिगत आकांक्षा के; सर्व—समस्त; कामेभ्य:—इन्द्रियतृप्ति से; कृष्ण-पाद—भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमल की; अनुसेवया—निरन्तर सेवा करते रहने से ।.
 
अनुवाद
 
 श्री सूत गोस्वामी ने कहा : सम्राट युधिष्टिर ने अपने राज्य-काल में सबों के ऊपर उदारतापूर्वक शासन चलाया। वे उनके पिता तुल्य ही थे। उन्हें कोई व्यक्तिगत आकांक्षा न थी और भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों की निरन्तर सेवा करते रहने के कारण, वे सभी प्रकार की इन्द्रियतृप्ति से विरक्त थे।
 
तात्पर्य
 जैसाकि हमने इस ग्रन्थ की भूमिका में कहा है, “संसार के समस्त कष्ट सह रहे जनसमुदाय के लिए मानव समाज में कृष्ण के विज्ञान की आवश्यकता है और समस्त राष्ट्रों के प्रमुख महापुरुषों से हमारी एक ही विनती है कि वे अपने कल्याण हेतु, समाज के कल्याण हेतु तथा विश्व भर के लोगों के कल्याण हेतु, कृष्णातत्त्व को ग्रहण करें।” यहाँ पर सत्य की प्रतिमूर्ति, महाराज युधिष्ठिर के उदाहरण से इसकी पुष्टि होती है। भारत में लोग रामराज्य की लालसा करते हैं, क्योंकि भगवान् राम आदर्श राजा थे और भारत के सारे राजा या सम्राट, पृथ्वी पर जन्म लेनेवाले प्रत्येक प्राणी की सम्पन्नता के लिए विश्व के भाग्य का नियमन करते थे। यहाँ पर प्रजा: शब्द महत्त्वपूर्ण है। इसका व्युत्पत्तिपरक आशय है, “जिसने जन्म लिया है वह।” पृथ्वी पर जीवों की अनेक योनियाँ हैं—जलचर से लेकर पूर्ण मनुष्यों तक और वे सभी प्रजा कहलाती हैं। इस ब्रह्माण्ड के स्रष्टा ब्रह्माजी प्रजापति कहलाते हैं, क्योंकि जिन लोगों ने जन्म लिया है, उन सबके वे पितामह हैं। इस प्रकार प्रजा शब्द जिस अर्थ में आजकल प्रयुक्त होता है, वह उससे अधिक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। राजा सभी जीवों— जलचर, पौधे, वृक्ष, सरीसृप, पक्षी, पशु तथा मनुष्य का प्रतिनिधित्व करता है। इनमें से हर एक प्राणी परमेश्वर का अंश है (भगवद्गीता १४.४) और भगवान् का प्रतिनिधि होने के कारण राजा सबों को उचित सुरक्षा प्रदान करने के लिए वचनबद्ध होता है। किन्तु आज की चरित्रविहीन प्रशासन पद्धतियों के राष्ट्रपति तथा तानाशाहों के साथ ऐसा नहीं है, जहाँ निम्न पशुओं को कोई सुरक्षा प्रदान नहीं की जाती, जबकि उच्चतर पशुओं को तथाकथित सुरक्षा प्रदान प्राप्त रहती है। लेकिन यह एक महान् विज्ञान है, जिसे कृष्णतत्त्व जाननेवाला ही सीख सकता है। कृष्ण के विज्ञान को समझकर कोई भी विश्व का पूर्णतम व्यक्ति बन सकता है और जब तक मनुष्य को इस विज्ञान (तत्त्व) का ज्ञान नहीं होता, तब तक शिक्षा द्वारा अर्जित सारी उपाधियाँ तथा स्नातकोत्तर अनुसंधान की सनदें व्यर्थ और निरर्थक होती हैं। महाराज युधिष्ठिर इस कृष्ण-तत्त्व को भलीभाँति जानते थे, क्योंकि यहाँ पर यह कहा गया है कि इस विज्ञान के निरन्तर अनुशीलन से, या भगवान् कृष्ण की सतत भक्तिमय सेवा से, उन्होंने राज्य पर शासन करने की योग्यता प्राप्त कर ली थी। कभी-कभी पिता अपने पुत्र पर अनावश्यक रूप से निर्दय होते दिखता है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं होता कि पिता ने पिता होने की योग्यता खो दी है। पिता सदा पिता ही रहता है, क्योंकि उसके ह्रदय में पुत्र का हित ही सर्वोपरि होता है। पिता चाहता है कि उसका हर लडक़ा उससे बढक़र हो। अतएव महाराज युधिष्ठिर जैसे राजा, जो सतोगुण की साक्षात् प्रतिमूर्ति थे, चाहते थे कि उनके अधीन सारे लोग, विशेष रूप से मनुष्य जिनकी चेतना अधिक विकसित रहती है, भगवान् कृष्ण के भक्त बनें जिससे वे इस भौतिक संसार की झंझटों से मुक्त हो सकें। उनके शासन का मूलमंत्र था—सभी नागरिकों का कल्याण, क्योंकि मूर्तिमंत सत्त्वगुण होने के कारण वे जानते थे कि नागरिकों की भलाई किसमें है। वे इसी सिद्धान्त पर शासन चलाते रहे, इन्द्रिय-तृप्ति के राक्षसी या आसुरी सिद्धान्त पर नहीं। आदर्श राजा के रूप में, उनकी कोई निजी आकांक्षा न थी और इन्द्रिय-तृप्ति के लिए कोई स्थान न था, क्योंकि उनकी सारी इन्द्रियाँ सदा परमेश्वर की प्रेममयी सेवामें लगी रहती थीं, जिसमें जीवों की आंशिक सेवा सम्मिलित है, क्योंकि जीव परम पूर्ण के अंश रूप हैं। जो लोग पूर्ण को छोडक़र केवल अंश की सेवा में व्यस्त रहते हैं, वे केवल अपने समय तथा शक्ति दोनों का अपव्यय ही करते हैं, जिस तरह कोई मनुष्य जड़ों को न सींच कर वृक्ष की पत्तियों को सींचे। यदि जड़ों में पानी डाला जाता है, तो पत्तियाँ स्वत: पूरी तरह सजीव रहती हैं, किन्तु यदि केवल पत्तियों पर जल डाला जाय तो सारी शक्ति व्यर्थ जाती है। अतएव महाराज युधिष्ठिर भगवान् की सेवा में सदा लीन रहते थे और इस प्रकार से भगवान् के अंश रूप सारे जीव, उनके सतर्क शासन के अन्तर्गत जीवन की सारी सुविधाएँ प्राप्त करते थे और अगले जीवन में उनकी उन्नति होती थी। राज्य प्रशासन की पूर्ण व्यवस्था की यही विधि होती है।
 
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