किं ते कामा: सुरस्पार्हा मुकुन्दमनसो द्विजा: ।
अधिजह्रुर्मुदं राज्ञ: क्षुधितस्य यथेतरे ॥ ६ ॥
शब्दार्थ
किम्—किसलिए; ते—वे सब; कामा:—इन्द्रिय भोग के विषय; सुर—स्वर्ग के निवासियों की; स्पार्हा:—आकांक्षाएँ; मुकुन्द- मनस:—पहले से ईश्वर भावना-भावित का; द्विजा:—हे ब्राह्मणो; अधिजह्रु:—सन्तुष्ट कर सके; मुदम्—प्रसन्नता; राज्ञ:—राजा का; क्षुधितस्य—भूखे का; यथा—जिस तरह; इतरे—अन्य वस्तुओं में ।.
अनुवाद
हे ब्राह्मणो, राजा का ऐश्वर्य इतना मोहक था कि स्वर्ग के निवासी भी उसकी आकांक्षा करने लगे थे। लेकिन चूँकि वे भगवान् की सेवा में तल्लीन रहते थे, अतएव उन्हें भगवान् की सेवा के अतिरिक्त कुछ भी तुष्ट नहीं कर सकता था।
तात्पर्य
संसार में दो वस्तुएँ होती हैं, जिनसे जीवों की तुष्टि हो सकती है। जब कोई भौतिकता में डूबा हुआ रहता है, तो वह इन्द्रिय-तृप्ति से ही तुष्ट होता है, किन्तु जब कोई भौतिक गुणों से मुक्त होता है, तो वह भगवान् की तुष्टि के लिए प्रेमामयी सेवा करके ही तुष्ट होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि जीव वैधानिक रूप से सेवक है, सेव्य नहीं है। बहिरंगा शक्ति की दशाओं में मोह-ग्रस्त होने के कारण, वह अपने आपको सेव्य (सेवा कराने योग्य) समझता है, जबकि वास्तव में वह सेव्य होता नहीं; वह तो काम, इच्छा, क्रोध, लोभ, गर्व, उन्मत्तता तथा असहिष्णुता जैसी इच्छाओं का दास होता है। जब वह आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति करके अपने होश में आता है, तो वह अनुभव करता है कि वह भौतिक जगत का स्वामी नहीं, अपितु अपनी इन्द्रियों का दास है। उस समय वह भगवत्-सेवा की याचना करता है और तब वह तथाकथित भौतिक सुख के द्वारा मोहग्रस्त हुए बिना सुखी बन जाता है। महाराज युधिष्ठिर मुक्तात्मा थे। अतएव उन्हें विशाल साम्राज्य, उत्तम पत्नी, आज्ञाकारी बन्धुओं, सुखी प्रजा तथा सुसम्पन्न जगत से कोई प्रसन्नता नहीं हो रही थी। शुद्ध भक्त को ये वर स्वत: प्राप्त होते हैं, भले ही वह उनकी कामना न करे। यहाँ पर दिया गया दृष्टान्त अत्यन्त उपयुक्त है। ऐसा कहा जाता है कि भूखे को भोजन के अतिरिक्त, अन्य किसी वस्तु से सन्तोष नहीं मिलता।
सारा संसार भूखे जीवों से भरा पड़ा है। यह भूख उत्तम भोजन, आश्रय या इन्द्रियतृप्ति के लिए नहीं है। भूख तो आध्यात्मिक वातावरण के लिए है। अज्ञान-वश ही लोग सोचते हैं कि संसार असंतोष से व्याप्त है, क्योंकि पर्याप्त भोजन, आश्रय, सुरक्षा तथा इन्द्रियतृप्ति के साधन उपलब्ध नहीं हैं। यह मोह कहलाता है। जब जीव परिलक्षित आध्यात्मिक तुष्टि के लिए भूखा होता है, तो लोगों को उसमें भौतिक भूख दिखती है। लेकिन मूर्ख नेता यह भी नहीं देख पाते कि जो लोग भौतिक दृष्टि से पूरी तरह तृप्त हैं, वे फिर भी भूखे रहते हैं। और उनकी भूख तथा गरीबी है क्या? यह भूख वस्तुत: आध्यात्मिक भोजन, आध्यात्मिक आश्रय, आध्यात्मिक सुरक्षा तथा आध्यात्मिक इन्द्रियतृप्ति के लिए होती है। इन्हें परम आत्मा, भगवान् श्रीकृष्ण के सान्निध्य द्वारा प्राप्त किया जा सकता है और जिनके पास ये वस्तुएँ हैं, वे भौतिक जगत के तथाकथित भोजन, आश्रय, सुरक्षा तथा इन्द्रियतृप्ति के द्वारा आकृष्ट नहीं होते, यद्यपि स्वर्ग के निवासी भी इनका आनन्द उठाते हैं। अतएव भगवद्गीता (८.१६) में भगवान् ने कहा है कि ब्रह्माण्ड के सर्वोच्च लोक अर्थात् ब्रह्मलोक में भी, जहाँ जीवन अवधि (आयु) पृथ्वी की गणना से कई लाख गुनी होती है, जीव अपनी भूख नहीं बुझा सकता। ऐसी भूख तभी शमित होती है, जब जीव अमरता को प्राप्त होता है, जिसे वैकुण्ठलोक में ही, जो ब्रह्मलोक से भी काफी दूर है, उन भगवान् मुकुन्द के सान्निध्य द्वारा प्राप्त किया जा सकता है, जो अपने भक्तों को मुक्ति का दिव्य आनन्द प्रदान करनेवाले हैं।
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