हे भृगुपुत्र (शौनक), जब महान् योद्धा बालक परीक्षित अपनी माता उत्तरा के गर्भ में थे और (अश्वत्थामा द्वारा छोड़े गये) ब्रह्मास्त्र के ज्वलंत ताप से पीडि़त थे, तो उन्होंने परमेश्वर को अपनी ओर आते देखा।
तात्पर्य
मृत्यु सामान्यतया सात मास की समाधि है। जीव, अपने कर्म के अनुसार, पिता के वीर्य के माध्यम से माता के गर्भ में प्रवेश करता है और वांछित शरीर धारण करके विकसित होता रहता है। विशिष्ट जीवों में अपने-अपने विगत कर्मों के अनुसार जन्म का यह नियम है। जब वह इस समाधि से जागृत होता है, तो उसे गर्भ के भीतर बन्दी रहने में असुविधा का अनुभव होने लगता है और वह उससे बाहर निकलने का प्रयत्न करता है और कभी-कभी ऐसी मुक्ति के लिए सौभाग्यवश वह भगवान् से प्रार्थना करता है। जब महाराज परीक्षित अपनी माता के गर्भ में थे, तो अश्वत्थामा द्वारा छोड़े गये ब्रह्मास्त्र का उन पर प्रहार हुआ, जिससे उन्हें प्रखर ताप का अनुभव हो रहा था। किन्तु उनके भगवद्भक्त होने के कारण, भगवान् अपनी अपार शक्ति से गर्भ के भीतर साक्षात् प्रकट हुए और बालक यह देख सका कि कोई उसे बचाने आया है। उस असहाय अवस्था में भी बालक परीक्षित ने असह्य ताप सहन किया, क्योंकि वे स्वभाव से महान् योद्धा थे। इसीलिए यहाँ वीर: शब्द प्रयुक्त हुआ है।
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