श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 12: सम्राट परीक्षित का जन्म  »  श्लोक 9
 
 
श्लोक  1.12.9 
श्रीमद्दीर्घचतुर्बाहुं तप्तकाञ्चनकुण्डलम् ।
क्षतजाक्षं गदापाणिमात्मन: सर्वतोदिशम् ।
परिभ्रमन्तमुल्काभां भ्रामयन्तं गदां मुहु: ॥ ९ ॥
 
शब्दार्थ
श्रीमत्—समृद्ध; दीर्घ—लम्बे; चतु:-बाहुम्—चार भुजाओं वाले; तप्त-काञ्चन—पिघला सोना; कुण्डलम्—कान की बालियाँ; क्षतज-अक्षम्—रक्त की लालिमा से युक्त आँखें; गदा-पाणिम्—गदा से युक्त हाथ; आत्मन:—अपना; सर्वत:—सभी; दिशम्—चारों ओर; परिभ्रमन्तम्—घूमते हुए; उल्काभाम्—गिरते हुए तारे (उल्का) की भाँति; भ्रामयन्तम्—घुमाते हुए; गदाम्—गदा को; मुहु:—निरन्तर ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् चार भुजाओं से युक्त थे, उनके कुण्डल सोने के थे तथा आँखें क्रोध से रक्त जैसी लाल थीं। जब वे चारों ओर घूमने लगे, तो उनकी गदा उनके चारों ओर गिरते तारे (उल्का) की भाँति निरन्तर चक्कर लगाने लगी।
 
तात्पर्य
 ब्रह्मसंहिता (अध्याय ५) में कहा गया है कि परम ईश्वर गोविन्द, अपने एक पूर्ण अंश से, ब्रह्माण्ड-मण्डल में प्रवेश करते हैं और वे अपने आप, परमात्मा-रूप में, न केवल प्रत्येक जीव के हृदय में, अपितु भौतिक तत्त्वों के प्रत्येक परमाणु में प्रवेश कर जाते हैं। इस प्रकार भगवान् अपनी अचिन्त्य शक्ति से सर्वव्यापी हैं और इस तरह वे अपने प्रिय भक्त महाराज परीक्षित की रक्षा करने के लिए उत्तरा के गर्भ में प्रविष्ट हुए। भगवद्गीता (९.३१) में भगवान् हर एक को आश्वस्त करते हैं कि उनके भक्तों का कभी भी विनाश नहीं होता। कोई भी भगवान् के भक्त को नहीं मार सकता, क्योंकि भगवान् उसकी रक्षा करते हैं और भगवान् जिसे मारना चाहते हैं, उसे कोई भी बचा नहीं सकता। भगवान् सर्वशक्तिमान हैं। अतएव वे चाहें तो मार भी सकते हैं और बचा भी सकते हैं। वे उस विषम परिस्थिति में (उत्तरा के गर्भ में) भी, अपने भक्त महाराज परीक्षित को ऐसे रूप में दिखाई पड़े, जो उसकी दृष्टि के अनुरूप था। भगवान् हजारों ब्रह्माण्डों से भी वृहत् रूप धारण कर सकते हैं और साथ ही, परमाणु से भी लघु बन सकते हैं। दयालु तो वे हैं ही, अतएव वे जीव की सीमित दृष्टि के अनुरूप बन जाते हैं। वे असीम हैं। वे हमारी किसी गणना की परिधि से सीमित नहीं हैं। वे हम जितना सोच सकते हैं उससे भी अधिक विशाल और हमारी चिन्तन-शक्ति से भी अधिक लघु बन सकते हैं। किन्तु प्रत्येक दशा में वे वही सर्वशक्तिमान भगवान् बने रहते हैं। उत्तरा के गर्भ में अँगूठे के तुल्य विष्णु में तथा वैकुण्ठधामवासी पूर्ण नारायण रूप में कोई अन्तर नहीं है। वे अपने विभिन्न असमर्थ भक्तों की सेवा स्वीकार करने के लिए ही अर्चाविग्रह रूप स्वीकार करते हैं। अर्चाविग्रह अर्थात् भौतिक तत्वों से बने भगवान् के रूप की कृपा से, भौतिक जगत के सारे भक्त सरलता से भगवान् तक पहुँच सकते हैं, यद्यपि वे भौतिक इन्द्रियों द्वारा अग्राह्य हैं। अतएव अर्चाविग्रह भगवान् का पूर्ण आध्यात्मिक स्वरूप है, जिसे भौतिक भक्त देख सकते हैं; भगवान् के ऐसे अर्चाविग्रह को कभी भौतिक नहीं माना जाता। यद्यपि बद्धजीवों के लिए पदार्थ तथा आत्मा में काफी अन्तर होता है, किन्तु भगवान् के लिए पदार्थ तथा आत्मा में कोई अन्तर नहीं होता। भगवान् के लिए सारा अस्तित्व केवल आध्यात्मिक है और इसी तरह भगवान् के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रखनेवाले शुद्ध भक्त के लिए, आध्यात्मिक अस्तित्व के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता।
 
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