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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 13: धृतराष्ट्र द्वारा गृह-त्याग  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  1.13.10 
भवद्विधा भागवतास्तीर्थभूता: स्वयं विभो ।
तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्त:स्थेन गदाभृता ॥ १० ॥
 
शब्दार्थ
भवत्—आप; विधा:—जैसे; भागवता:—भक्त; तीर्थ—तीर्थयात्रा के पवित्र स्थल; भूता:—बने हुए; स्वयम्—अपने आप; विभो—हे शक्तिमान; तीर्थी-कुर्वन्ति—तीर्थस्थान बनाते हैं; तीर्थानि—तीर्थस्थल; स्व-अन्त:-स्थेन—हृदय में स्थित होकर; गदा-भृता—भगवान् के ।.
 
अनुवाद
 
 हे प्रभु, आप जैसे भक्त, निश्चय ही, साक्षात् पवित्र स्थान होते हैं। चूँकि आप भगवान् को अपने हृदय में धारण किए रहते हैं, अतएव आप समस्त स्थानों को तीर्थस्थानों में परिणत कर देते हैं।
 
तात्पर्य
 भगवान् अपनी विभिन्न शक्तियों के कारण सर्वव्यापी हैं, जिस प्रकार बिजली सर्वत्र फैली हुई रहती है। भगवान् की सर्वव्यापकता का अनुभव तथा उसका प्राकट्य उसी प्रकार विदुर जैसे अनन्य भक्तों द्वारा किया जाता है, जिस प्रकार बिजली के बल्ब में बिजली प्रकट होती है। विदुर जैसा शुद्ध भक्त भगवान् की उपस्थिति को सर्वत्र अनुभव करता है। वह प्रत्येक वस्तु को भगवान् की शक्ति में देखता है और भगवान् को प्रत्येक वस्तु में। पृथ्वी पर जितने भी पवित्र स्थान हैं, वे भगवान् के अनन्य भक्तों की उपस्थिति से परिपूरित वातावरण द्वारा मनुष्य की दूषित चेतना को शुद्ध बनाने के निमित्त हैं। यदि कोई इन पवित्र स्थानों में जाता है, तो उसे चाहिए कि वहाँ रहनेवाले शुद्ध भक्तों को खोजे, उनसे शिक्षा ग्रहण करें, उस शिक्षा को व्यावहारिक जीवन में उतारे और इस तरह धीरे-धीरे अपने आपको मोक्ष के लिए, या भगवद्-धाम वापस जाने के लिए तैयार करे। किसी पवित्र स्थान में जाने का अर्थ मात्र गंगा या यमुना नदी में स्नान करना या उन स्थानों के मन्दिरों का दर्शन करना नहीं होता। उसे विदुर जैसे प्रतिनिधियों को खोजना चाहिए, जिन्हें भगवान् की सेवा करने के अतिरिक्त जीवन में अन्य कोई आकांक्षा नहीं होती। भगवान् सदा से ऐसे शुद्ध भक्तों के साथ रहते हैं, क्योंकि उनकी अनन्य सेवा, सकाम कर्म या व्यर्थ चिन्तन से किसी प्रकार प्रभावित नहीं होती। वे भगवान् की असली सेवा में, विशेष रूप से श्रवण तथा कीर्तन के माध्यम से लगे रहते हैं। शुद्ध भक्त प्राधिकारियों से श्रवण करते हैं, कीर्तन करते हैं और भगवान् की महिमाओं का लेखन करते हैं। महामुनि व्यासदेव ने नारद से सुना था और तब उन्होंने लिखकर कीर्तन किया; शुकदेव गोस्वामी ने अपने पिता से शिक्षा ग्रहण की और परीक्षित से उसका वर्णन किया, श्रीमद्भागवत की यही विधि है। इस तरह भगवान् के शुद्ध भक्त अपने कार्यों से किसी भी स्थान को तीर्थस्थल में बदल सकते हैं और तीर्थस्थलों का नाम उन्हीं के कारण होता है। ऐसे शुद्ध भक्त किसी भी स्थान के दूषित वातावरण को शुद्ध करने में समर्थ होते हैं। तो ऐसे पवित्र स्थान की तो बात ही क्या है, जो उन स्वार्थी व्यक्तियों के सन्देहास्पद कार्यों द्वारा अपवित्र हो रहा हो, जो ऐसे पवित्र स्थान की प्रसिद्धि की परवाह न करते हुए अपना धन्धा चलाते हैं।
 
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